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सम्पूर्ण कर्मों को नष्ट कर देने व लोक के अग्रभाग में आत्म शक्ति प्रबल करने हेतु सम्पूर्ण इन्द्रियों विराजने वाले परम-पारिणामिक स्वभाव में लीन ज्ञायक की खिड़कियों को बंद करके बैठता है, तब अंतरंग की स्वभावी परमात्मा सिद्ध परमेष्ठी हमारे परम ध्येय हैं। भाप अंतरंग में उत्पन्न होती है। निज की ऊर्जा निज
जब तक मन में स्थिरता नहीं होगी ध्यान नहीं में उद्धृत होती है। ढक्कन जब भाप से बाहर फिक होगा। मन एक दर्पण है, जैसा चेहरा सामने आता है जाता है, तो कर्मों की राख अपने आप बाहर फिकना प्रतिबिम्ब वैसा ही होता है। मन के सामने जो वस्तु आरंभ हो जाती है। ऐसी स्थिति में बगैर ध्यान के कर्मों आती है, मन उसी ओर उन्मुख हो जाता है। इसलिए की निर्जरा संभव नहीं है। कर्मों की निर्जरा ही मोक्ष का मन को योग की ओर मोडना होगा। भोग-विलास की साक्षात् हेतु है, उसका एकमात्र आलम्बन ध्यान है।
ओर जाते हुए मन पर लगाम लगानी होगी, तब ही ध्यान तो त्रैकालिक है। पहले यह देखना है कि हमारा ध्यान संभव होगा। चित्त की एकाग्रता ध्यान है, संवर- कौन-सा ध्यान चल रहा है। धर्म या शुक्ल ध्यान मोक्ष निर्जरा ध्यान का फल है और उस फल का फल मोक्ष के लिए है। आत और रौद्र ध्यान संसार का हेतु है। है। इसलिए जिनागम में बार-बार ध्यान करने के लिए क्रूरता का नाम रौद्र ध्यान है। हिसानन्दी रौद्र ध्यान में प्रेरित किया गया है।
कृत, कारित, अनुमोदन, मन, वचन, काय, समरंभ, ____ जब तक इन्द्रियों की खिड़की खुली हुई है तब
समारंभ और आरंभ सम्मिलित है। इसी प्रकार अन्य तक निज का चित्र झलकने वाला नहीं है। ये आत्मा
की वस्तु को बिना पूछे उठाना या उपभोग करना का चित्र तभी झलकेगा जब इन्द्रिय-मन की खिड़कियाँ
चौर्यानन्दी रौद्र ध्यान है। आवश्यकता से अधिक वस्तु बंद कर देंगे तभी निश्चय ध्येय की प्राप्ति होगी। अतः
का संग्रह करना परिग्रहानन्दी रौद्र ध्यान है। इष्ट का राग, द्वेष, मोह को छोड़ने का अभ्यास करना चाहिए।
वियोग होने पर जो आर्त परिणाम होते हैं, वह इष्ट जब तक मोह दूर नहीं होगा, तब तक राग-द्वेष भी नहीं
वियोग आर्त ध्यान है। जो हमें अच्छा लगता है, छूटेगा एवं निज आत्मा का ध्यान नहीं होगा। ध्यान के
उसका संयोग हो जाय तो वह अनिष्ट संयोग आर्त ध्यान पहले ध्याता को, वस्तु और व्यक्ति से दूर हटना होगा।
है। अत: समता भाव से राग-द्वेष-मोह को छोड़कर वस्तु और व्यक्ति जब तक दृष्टि में झलकते रहेंगे तब
निज आत्मा का ध्यान करने पर ही जीवन-मरण के चक्र तक ध्यान की सृष्टि का उद्भव नहीं होगा। अंतरंग
" से मुक्ति प्राप्त हो सकेगी, अन्यथा चौरासी लाख योनियों शक्ति को जाज्वल्यमान करने वाला यदि कोई द्रव्य है. म भटकते रहेगे और कर्म शत्रु हमारा साथ नहीं छोड़ेंगे। वस्तु है तो वह ध्यान ही है।
० १३३५, किसान मार्ग, बरकत नगर, जयपुर (राज.)
याही नरपिंड में विराजै त्रिभुवन-निधि,
याही में त्रिविध परिणाम रूप सृष्टि है। याही में करम की उपाधि दुख दावानल,
___ याही में समाधि सुख वारिद की वृष्टि है ।। यामें करतार करतूति याही में विभूति,
- यामें भोग याही में वियोग यामें घृष्टि है। याही में विलास सब गर्भित गुप्तरूप,
ताही को प्रगट जाके अन्तर सुदृष्टि है।।३३।। ना.स.
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/58
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