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निज आत्मा ही परम ध्येय
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0 महेश चन्द्र चांदवाड़
पूजा करने के लिए मंदिर की आवश्यकता ३. वेदना प्रभाव आर्त्त ध्यान – शरीर की पीड़ा पड़ती है, किन्तु पूज्य बनने के लिए मंदिर की होने पर उसके संबंध में मन में चिन्तन होता रहे, उसे आवश्यकता नहीं है। इसी प्रकार ज्ञानी बनने के लिए वेदना प्रभाव आर्त ध्यान कहते हैं। मात्र शास्त्रों और ग्रन्थों की आवश्यकता नहीं है। ज्ञान ४. निदान बन्ध आर्त ध्यान - भोगों के विषयों तो आत्मा का धर्म है। अपने परिणामों को निर्मल करें, की चाह संबंधी मन में जो ध्यान होता रहता है. उसे यही धर्म है। जब शुभ कर्म करेंगे, तो देव गति का बंध निदान बन्ध आर्त ध्यान कहते हैं। होगा और अशुभ कर्म करेंगे, तो नरक और तिर्यंच गति ।
रौद्र ध्यान - का बंध होगा। जबकि शुद्धोपयोग से मोक्ष की प्राप्ति होती है। अतः निज में निज का रमण यह निर्ग्रन्थ योगी
१. हिंसानन्द रौद्र ध्यान – मन में हिंसा के प्रति की दशा है, अतएव उत्तम क्षमा. मार्दव, आर्जव. ही चिन्तन चलता रहे, उसी में आनन्द मानता रहे, उसे शौच, सत्य, संयम, तप, त्याग, आकिंचन्य और हिसानन्द रौद्र ध्यान कहते है। ब्रह्मचर्य के लिए किसी बाहरी तत्त्व की आवश्यकता २. मृषानन्द रौद्र ध्यान – मन में झूठ के लिए नहीं होती, यह तो जीव का स्वभाव है और यही धर्म ही चिन्तन रहे, उसी में आनन्द मानता रहे, उसे मृषानन्द है। अत: राग, द्वेष और मोह को छोड़कर निज आत्मा रौद्र ध्यान कहते हैं। का ध्यान करना चाहिए।
३. चौर्यानन्द रौद्र ध्यान – चोरी करने में ही ध्यान चार प्रकार के हैं – १. आर्त ध्यान, २. जिसे आनन्द आए और मन में चोरी का ही चिन्तन रहे, रौद्र ध्यान, ३. धर्म ध्यान, ४. शुक्ल ध्यान । इनके भी उसे चौर्यानन्द रौद्र ध्यान कहते हैं। चार-चार भेद हैं।
४. परिग्रहानन्द रौद्र ध्यान - परिग्रह बढ़ाने आर्त ध्यान -
और उसी में आनन्द मानने के चिन्तन को परिग्रहानन्द १. इष्ट वियोगज आर्त ध्यान – इष्ट वस्त के द्रि ध्यान कहते है। वियोग होने पर मन में जो चिन्तन होता है, उसे इष्ट इस प्रकार रौद्र ध्यान से भी मन में शान्ति नहीं वियोगज आर्त ध्यान कहते हैं।
मिलती और यह संसार भ्रमण में ही सहायक होगा। २. अनिष्ट वियोगज आर्त ध्यान - अनिष्ट वस्तु धर्म ध्यान - के संयोग होने पर उसके वियोग के लिए मन में जो
१. आज्ञा विचय धर्म ध्यान - जिनागम की चिन्तन होता है, उसे अनिष्ट वियोगज आर्त ध्यान आज्ञा से तत्त्वों का चिन्तन हो, उसे आज्ञा विचय धर्म कहते हैं।
ध्यान कहते हैं।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/56
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