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पुद्गल, जीव को सहजता से गमनागमन के लिए परिणमन हो रहा है, उसको उसीरूप में परिणमन कराने सहकार्यकारिणी है। इससे आज हमारे साइंसवालों ने में ये काल द्रव्य सहयोगी होते हैं। इन सारी बातों का इसका संशोधन कर दिया कि आज वायरलेस अपने जैन शास्त्रों में सूक्ष्म वर्णन है और कहीं नहीं है। (मोबाईल) से, यानी बिना तार के आप कहीं से कभी आकाश द्रव्य :- भले ही आकाश सबको भी किसी से भी बात कर रहे हैं। कोई भी पेपर फैक्स जगह देता है. अन्य पांचों द्रव्य भी आकाश को के द्वारा एक मिनट के अंदर देश-विदेश के किसी भी सहयोग देते हैं। पंचास्तिकाय में लिखा है कि जैसे कोने में भेज दिया जाता है। हू ब हू वही पेपर वहाँ के दूध में पानी मिलकर एकरूप हो जाता है, ऐसे ही फैक्स मशीन में प्रिन्ट हो जाता है। किसी छोटी सी जगह सारे द्रव्य एक दूसरे में मिले हये हैं। फिर भी जैसे में दो छोटे कमरे आमने-सामने हो और एक का दरवाजा पानी का स्वभाव पानी है, और दूध का स्वभाव दूध खोलें तो दूसरा भी खुल जाता है और एक को बंद करें है, ऐसे ही सारे छहों द्रव्य अपने स्वभाव को कभी तो दूसरा भी बंद हो जाता है। तो एक ऐसा अमूर्तिक नहीं छोड़ते हैं। उपादान उनकी जो सत्ता है वह स्वतंत्र द्रव्य है, जो सारे पृथ्वी मंडल के जीव और पुद्गल है। सिद्ध भगवान की पूजा में एक-एक चीजों के पदार्थों को गमनागमन के लिए सहायता करता है। कोई अर्थ इतने गढ़, गंभीर हैं! नाना तरह से इसमें लिखे भी चीज स्थिर है, इसका मूल कारण क्या है? यह गये हैं। इसमें लिखा है कि 'अनंत व्याप्य-व्यापक अधर्म नाम का एक द्रव्य है। जैसे पेड़ के नीचे छाया भाव' जब तक इन शब्दों को दसों साल तक पढेंगे है तो कोई भी मुसाफिर आकर बैठ जाता है। पेड़ ने नहीं तो ये शब्द समझ में नहीं आयेंगे। सिर्फ चावल उसे अपने नीचे आने के लिए पकड़कर खींचा नहीं। चढा दिया, पूजा किया, मंत्र बोल दिया, गाजा बाजा एकदेश दृष्टांत है।
कर दिया, इतना करने से ही नहीं चलेगा। हर पदार्थ काल द्रव्य – इसी प्रकार से काल द्रव्य है। अपने में व्याप्य-व्यापक है। आपके शरीर में आपकी आप सब तो व्यावहारिक काल द्रव्य को जानते हैं। आत्मा अपने आप में व्याप्य-प्यापक है और इसी घड़ी, घंटा, दिन, महीना, वर्ष आदि ये व्यावहारिक तरह से शरीर अपने आप में व्याप्य-व्यापक है। काल हैं। निश्चय काल अत्यंत सूक्ष्म है। एक परमाणु जैसे पानी अपने में व्याप्य-व्यापक है और दूध जिसका और भी टुकड़ा नहीं किया जा सकता है, उतनी अपने में व्याप्य-व्यापक है। और यदि उसमें केसर डाल जगह में लुढकने को एक समय कहते हैं। इतने एक देते हैं तो उसका रंग पीला हो जाता है तो वह केसर समय में ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्।' तीन समय नहीं
अपने में व्याप्य-व्यापक भाव है। इस संसार में एक लगते ‘उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' होने के लिए। तो द्रव्य दूसरे द्रव्य रूप कभी बनते नहीं है। ये क्यों कहा? काल द्रव्य पुराने से नया और नये से पुराना होने के लिए
जैसे कुम्हार घड़ा बनाता है। तो व्यवहार से मदद करता है। उदासीनता से, जबरदस्ती से नहीं। जैसे
भले ही कहें कि कुम्हार ने घड़ा बनाया, मगर वास्तव आपने दूध पी लिया तो उसे खून बनने में काल द्रव्य
में उस मिट्टी में घड़ा बनने की उपादान शक्ति पहले से मदद करता है। हर परमाणु स्वतंत्र है। जैसे आम का
ही मौजूद थी। कुम्हार तो निमित्तमात्र बना। कुम्हार ने फल पेड़ में लगा है, उसमें से कोई हरा है, कोई पीला
मिट्टी थोड़ी ही बनाई। वह तो उस मिट्टी में पानी आदि है, किसी में काला दाग लग गया है और कोई सड़
डालकर उसे सिर्फ गूथने और आकार देने के लिए रहा है। तो काल द्रव्य एक रत्नराशि जैसा एक-एक
निमित्त बना। व्यवहार से कुम्हार ने घड़ा बनाया पर प्रदेशों में ठसाठस भरा हुआ है। जहाँ जिस पदार्थ का
निश्चय से कुम्हार ने मिट्टी नहीं बनाई। इसलिए उसे
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/4
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