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भारतीय दर्शन -
मानता है। उसमें कार्य-कारणवाद का विश्लेषण बड़े भारतीय दर्शन की विचारधारा मल रूप में विस्तार के साथ किया गया है । मूल में सांख्यदर्शन एक होने पर भी विकास की दृष्टि से उसको दो भागों परिणामवादी है । योगदर्शन मनोवैज्ञानिक पद्धति से में विभक्त किया गया है - वैदिक विचारधारा और चित्त की वृतियों का सुन्दर विश्लेषण प्रस्तुत करता है। अवैदिक (श्रमण) विचारधारा । दसरे शब्दों में कहें तो पतंजलि के पूर्व भी भारत में योग-विद्या थी। किन्तु पोथीवादी विचारधारा और अनभववादी विचारधारा। पतंजलि के योग-सूत्र में तथा व्यास-भाष्य में जो सैनिक प दों को अलग और पता विश्लेषण उपलब्ध होता है वैसा विश्लेषण पूर्व के ग्रंथों मानती है. साथ ही वेद को अनादि भी स्वीकार करती में नहीं मिलता । पंतजलि ने यम, नियम, आसन, है (जैन और बौद्धदर्शन ने वेद को पौरूषेय माना है) प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि योग - यह पोथीवादी विचारधारा है । दसरी अनभववादी के ये आठ अंग बताये हैं । इन्हीं का विस्तार के साथ विचारधारा है । जैन दर्शन के जिन और बौद्धदर्शन के योग दर्शन में वर्णन है। बुद्ध ने जो स्वयं अनुभव किया, उस अनुभूति की गौतम ऋषि ने प्रमाण और प्रमेय का न्यायअभिव्यक्ति ही जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन है। सूत्र में मुख्य रूप से वर्णन किया है । प्रमाण-शास्त्र, चार्वाकदर्शन भी प्रत्यक्ष अनुभव को महत्व देता है। ईश्वरवाद, और सृष्टि-कतृत्ववाद, ये न्यायदर्शन की पाश्चात्य दार्शनिकों ने भारतीयदर्शन का विभाजन दूसरे विशेषता है । कणाद ऋषि ने वैशेषिकदर्शन में सप्त पदार्थो प्रकार से भी किया है । आस्तिकदर्शन और नास्तिक का विस्तार के साथ विश्लेषण कर पदार्थ विद्या को दर्शन । आस्तिकदर्शन में वेद से संबंधित उपनिषद् और भारतीय दर्शन में एक गौरवमय स्थान प्रदान किया है गीता के साथ ही सांख्य और योग, वैशेषिक और प्रमाण के संबंध में जितना विश्लेषण वैशेषिक दर्शनकार न्यायदर्शन एवं पूर्व-मीमांसा और उत्तर-मीमांसा दर्शनों ने किया है, उतना प्रमेय के संबंध में नहीं । वैशैषिकदर्शन . का समावेश किया गया है। नास्तिक दर्शनों में चार्वाक, में द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और जैन और बौद्धदर्शनों का समावेश किया है। अभाव इन सात पदार्थो का विश्लेषण है। न्याय और
भारतीय दर्शन का प्रारम्भ वैदिक युग से माना वैशेषिक दोनों दर्शनों में अपवर्ग और मोक्ष को माना गया जाता है । उस युग का मानव यह जानना चाहता था है। इन पदार्थ और प्रमेयों के ज्ञान से अज्ञान नष्ट हो जाता कि सूर्य, चन्द्र, आकाश, जल और पृथ्वी आदि क्या है और आत्मा मुक्त हो जाता है । है ? वेदों के पश्चात् उपनिषद् युग आता है । इस युग मीमांसादर्शन और वेदान्तदर्शन ये दोनों दर्शन में मानव बहिर्मुख से अन्तर्मुख हो जाता है । वैदिक वेदों से संबंधित हैं । वेदों के कर्म-काण्ड का निरूपण काल में विश्व के मूल कारण की अन्वेषणा भौतिक मीमांसादर्शन में और वेदों के ज्ञान-काण्ड का निरूपण वस्तुओं से प्रारम्भ हुई थी । वह उपनिषद् काल में वेदान्त-दर्शन में मिलता है। जैमिनि ने मीमांसासूत्र की आत्मा और ब्रह्मा तक पहुँच गई । उपनिषदर्शन के रचना की और वादरायण ने वेदान्तसत्र की। मीमांसादर्शन अन्त में महाकाव्य काल आता है । उस युग का सबसे का मूल आधार वेद विहित कर्म, यज्ञ एवं याग है । श्रेष्ठ ग्रंथ गीता है । गीता में ज्ञान-योग, कर्म-योग और वेदान्तदर्शन का मूल आधार ब्रह्म और माया है । बह्मा भक्ति-योग का सुन्दर समन्वय है । भारतीय दर्शनों में के साथ जहाँ तक माया का संबंध है, वहाँ तक संसार चार्वाक दर्शन एकान्त रूप से भौतिकवादी दर्शन है। है। ब्रह्मा के अतिरिक्त इस संसार में जो कुछ भी है,
__सांख्य और योग ये दोनों दर्शन एक-दूसरे के वह मिथ्या है । वेदान्तदर्शन की यों तो अनेक शाखाएं पूरक हैं । सांख्य दर्शन का सृष्टि-विज्ञान बहुत प्रसिद्ध और उपशाखाएं हैं किन्तु आचार्य शंकर के पश्चात् वह है। वह प्रत्यक्ष, अनुमान और शक्य प्रमाण को प्रमाण अद्वेत वेदान्त के नाम से अधिक विश्रुत हुआ ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/65
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