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भक्ति में मुक्ति का अंकुर है
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o आचार्य श्री विद्यानंदजी मुनिराज
"ॐ नमः”
वैसे ही अरिहंत, सिद्ध, चत्तारि मंगलं, अरहंता मंगलं, महानुभावो, इस जयपुर महानगरी में इस भट्टारक सिद्ध मंगलं, साहू मंगलं, केवली पण्णत्तो धम्मो मंगलं की नसियाँ में सिद्धचक्र पाठ का शुभारंभ हो रहा है। - ये चारों मंगल हैं। इनके माध्यम से आप अपने शत्रु "चक्र" शब्द का अपने आप में बहत बडा महत्व है। पर विजय प्राप्त कर सकते हैं । एक 'सुदर्शन-चक्र' भी “संसार चक्र" भी कहते हैं, जिसके पंच परावर्तन का होता है, जो भगवान के आगे-आगे धर्मचक्र की भाँति वर्णन है - द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव और भव । चौरासी चलते रहता है। जिसे देखते ही मनुष्य श्रद्धा से झक लाख योनि में ऐसी कोई योनि नहीं बची है, जिसमें इस जाता है। उसके दर्शन करते ही मनुष्य के अंदर आनन्द जीव ने भ्रमण नहीं किया। नाना तरह के द्रव्यों को उसने की अनुभूति होती है। इस चक्र से हजारों रश्मियाँ उपयोग कर लिया। सारे पंच परावर्तन में एक प्रदेश नहीं निकलती रहती हैं, जिसके दर्शन से अति आनंद की बचा, जहाँ इसने जन्म नहीं लिया। ऐसा कोई षष्टम अनुभूति होती है। काल हो, सुखमा, सुखमा-दुखमा, दुखमा सभी कालों एक बड़ी विचित्र गाथा सिद्ध भगवान की पूजा में उत्सर्पिणी, अवसर्पिणी काल में इसने जन्म-मरण में प्राकृत में है। इसे सबको मन लगाकर सुनना चाहिए प्राप्त किया है। और संसार में ऐसे कोई शुभ-अशुभ और मनन करना चाहिए। इसका जो सारांश है वह भाव नहीं बचे, जिसे इसने भाया नहीं। इस “पंच बहुत ही महत्वपूर्ण है। इसमें बहुत ही गजब की बात परावर्तन” में मिथ्यादृष्टि जीव नाना तरह के सांसारिक लिखी है उन्होंने । भक्तिभाव को इतना ऊँचा उठाकर बातों का वर्णन करते आ रहे हैं। इसने पाया नहीं केवल कोई आचार्य ही बता सकते हैं - ये तो नेमिचन्द्र एक सिद्ध गति को, जिसको पंचम गति कहते हैं। आचार्य ही हैं। धर्मानुरागी डॉ. सोगानीजी ने इसका चौरासी लाख योनि में चतुर्गति में भ्रमण करने को ही बहुत ही सुंदर अनुवाद कर दिया है। लोग कहते हैं कि 'संसार चक्र' कहते हैं।
ज्ञान से मोक्ष होगा। कोई कहते हैं कि दर्शन से मोक्ष इसके बाद कर्मचक्र है - ज्ञानावरणीय, होगा। कोई कहते हैं कि उग्र तप, चारित्र से मोक्ष होगा। दर्शनावरणीय, मोहनीय, वेदनीय, अंतराय, आयु, नाम, कोई कहते है कि संयम से मोक्ष होगा। इस तरह से सब गोत्र । सिद्ध भगवान इन आठों कर्मों से मुक्त हैं । इसीतरह अपने-अपने अनुभव से अपनी तरह से दुनिया को से 'चक्ररत्न' भरत चक्रवर्ती को प्राप्त हुआ। यह चक्ररत्न बताते हैं। पर इस गाथा में आचार्य कहते हैं कि - सारे शत्रु का संहार करने वाला होता है। णयेवणाणेण दंसणेण तवेण उग्गेणसंयमेण ।
___ 'धर्मचक्र' भी एक चक्र है। 'जैनेन्द्र धर्मचक्रं सिद्धेति आलेशुभशुद्ध बुद्धी समग्गियामोशैलेविशुद्धि ।। प्रभवतु' आप सब शांतिपाठ में पढ़ते ही हैं। जैसे कोई भक्ति से मोक्ष मिल जायेगा। ये जो अमुकसम्राट चतुरंगी सेना के माध्यम से पृथ्वी को जीतता है, तमुक से मोक्ष मिलेगा, ऐसी कल्पना करते हैं उसका
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महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-3/1
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