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हुए भी अनंत आकाश में एक छोटे बिन्दु के समान है अर्थात् लोक से परे अनंत आकाश का विस्तार माना गया है। जैन दर्शन में लोक का एक निश्चित आकार और घनफल माना गया है। यह अवधारणा भी जैन दर्शन की मौलिक देन है । कालद्रव्य के दो भेद हैं - निश्चयकाल और व्यवहार काल या समय । निश्चय काल अन्य द्रव्यों को परिणमन में उदासीन सहायक है और व्यवहार काल या समय परिणमन की सूचना देता है । व्यवहार काल की स्थिति लोक के एक सीमित क्षेत्र में ही मानी गई है परन्तु निश्चयकाल लोक में सर्वत्र विद्यमान है । काल की यह अवधारणा भी जैन दर्शन की विशेषता है ।
३. जीव विज्ञान
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जैन दर्शन अनुसार जीवों की श्रेणी हैं स्थावर और त्रस । स्थावर जीवों में हलन चलन की क्षमता नहीं होती और त्रस जीव हलन चलन की क्षमता से युक्त होते हैं । त्रस जीव इस क्षमता से अपनी सुरक्षा करने में सक्षम होते हैं और आहार आदि आवश्यकताओं के लिए एक स्थान से दूसरे स्थान गति कर सकते हैं । स्थावर जीव पांच प्रकार के हैं। जलकाय, वायुकाय, पृथ्वीकाय, अग्निकाय और वनस्पतिकाय । प्रथम चार प्रकार के जीव इतने सूक्ष्म है कि वे केवल केवलज्ञानगम्य हैं और अप्रतिघाती हैं । वनस्पतिकाय जीव तृण, हरित, लता, पोधे, वृक्ष आदि रूपों में पाए जाते हैं। वनस्पति को जैन दर्शन
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प्रारम्भ से ही जीव माना गया जो बाद में विज्ञान द्वारा भी प्रमाणित किया गया। स्थावर जीवों में केवल एक ही इन्द्रिय संज्ञा स्पर्श रूप में पाई जाती है। विज्ञान
भी वायरस के रूप में सूक्ष्म जीवों की खोज की है और कुछ वायरस प्रजाति के जीवों को पादप की श्रेणी में रखा है। यह जैन दर्शन की अवधारणा जहाँ सूक्ष्म निगोदिया जीवों को वनस्पति की श्रेणी में रखा गया है कि वैज्ञानिक पुष्टि करता है ।
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त्रस जीव द्विन्द्रिय, त्रिन्द्रिय, चतुद्रिय और पंचेन्द्रिय होते हैं । यह जीव विकास का एक क्रम है
जिसमें क्रमशः रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र इन्द्रिय का विकास होता है। पंचेन्द्रिय जीवों का और आगे विकास होने पर मन के रूप में संकल्प-विकल्प की क्षमता प्राप्त हो जाती है। विज्ञान ने भी जीव विकास के क्षेत्र में बहुत अनुसंधान किया है। डारविन ने जीवविकास के लिए स्वाभाविक वरण का सिद्धान्त प्रतिपादित किया जिसके अनुसार एक कोशीय जीव अमीबा से प्रारम्भ होकर हाइड्रा, मछली, मेंढक, सर्पणशील पक्षी, स्तनधारी जीव आदि के विकास पथ से बात बंदर तक पहुँची और फिर वही बंदर प्रागेतिहासिक मानव रूप में परिवर्तित हुआ । इस विकास क्रम में कई विसंगतियां और विरोधाभास हैं और यह जैन दर्शन से पूर्णतया मेल नहीं रखता । संभव है कि चतुद्रिय जीवों के विकास तक (या असंज्ञी पंचेन्द्रिय जीवों तक ) डारविन का सिद्धान्त ठीक हो परन्तु आगे का विकास क्रम स्वाभाविक वरण के सिद्धांन्त के अनुसार नहीं हो सकता । चतुद्रिय जीव स्तर तक जीवों के भोग योनि होती है परन्तु पंचेन्द्रिय जीवों में मन का विकास होने पर जीव विवेकपूर्ण कार्य करने में सक्षम हो जाते हैं और फिर स्वाभाविक वरण का सिद्धान्त सफल नहीं हो
सकता ।
विज्ञान की परिकल्पना शारीरिक विकास तक सीमित है । जैन दर्शन शारीरिक विकास के आगे मानसिक विकास और भावनात्मक विकास की कल्पना प्रस्तुत करता है। जीव अपने पुरुषार्थ से मानसिक और भावनात्मक विकास करते हुए परमविकास की अवस्था पर पहुँच कर अपने निज आत्म स्वरूप को प्राप्त कर सकता है ।
४. विज्ञानवाद
जैन दर्शन पदार्थ का सूक्ष्मतम् अंश परमाणु पुद्गल के रूप में 'प्रस्तुत करता है। यह परमाणु पुद्गल विज्ञान में ज्ञात परमाणु से बहुत भिन्न है । जैन दर्शन के अनुसार अनंत परमाणु पुद्गल का समूह मिलकर एक स्कंध का निर्माण करते हैं। ऐसा ही स्कंध वास्तव में विज्ञान का परमाणु हैं। यह विज्ञान के उस सिद्धान्त के महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/69
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