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२. अपाय विचय धर्म ध्यान • अपने या पर प्रतिरागादि भाव जो दुःख के मूल हैं, उनके विनाश के लिए मन में चिन्तन हो, उसे अपाय विचय धर्म ध्यान कहते हैं।
३. विपाक विचय धर्म ध्यान - कर्मों के फल के संबंध में संवेगवर्द्धक चिन्तन को विपाक विचय धर्म ध्यान कहते हैं ।
४. संस्थान विचय धर्म ध्यान लोक के आकार, काल आदि के आश्रय से जीव के परिभ्रमणादि विषयक असारता का चिन्तन करना व अरिहन्त, सिद्ध मंत्र पद आदि के आश्रय से तत्त्व चिन्तन करने को संस्थान विचय धर्म ध्यान कहते हैं ।
इस प्रकार धर्म ध्यान से जीव संसार के दुःखों से मुक्त हो सकता है और परम सुख की प्राप्ति कर सकता है।
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शुक्ल ध्यान
१. पृथकत्व वितर्क वीचार शुक्ल ध्यान अर्थ, याशव शब्दों के परिवर्तन सहित जिनवाणी के संबंध में चिन्तन करना पृथकत्व वितर्क वीचार शुक्ल ध्यान है।
- एक
२. एकत्व वितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान -1 ही अर्थ में एक ही योग से उन्हीं शब्दों में जिनवाणी के संबंध में चिन्तन करने को एकत्व वितर्क अवीचार शुक्ल ध्यान कहते हैं ।
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३. सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति शुक्ल ध्यान – सयोग केवली के अंतिम अन्तर्मुहुर्त में जब कि बादर योग भी नष्ट हो जाता है, तब सूक्ष्म काययोग से भी दूर होने के लिए जो योग, उपयोग की स्थिरता होती है, उसे सूक्ष्म क्रिया प्रतिपाति शुक्ल ध्यान कहते हैं ।
४. व्युपरत क्रियानिवृत्ति शुक्ल ध्यान - समस्त योग नष्ट हो चुकने पर अयोग केवली से यह व्युपरत क्रियानिवृत्ति शुक्ल ध्यान होता है ।
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नहीं है।
इस प्रकार शुक्ल ध्यान पंचम काल में संभव
इस पंचम काल में आर्त ध्यान, रौद्र ध्यान तो प्रायः लगा ही रहता है और यही पाप का मार्ग है। धर्म ध्यान और शुक्ल ध्यान में से अभी मात्र धर्म ध्यान का ही अभ्यास किया जा सकता है। इसी से पुण्य बंध होगा और स्वर्ग लोक में जाकर वहाँ से च्युत होकर उत्तम मनुष्य कुल में जन्म लेकर काल लब्धि होने पर शुक्ल ध्यान करके जन्म-मरण के बंधन से मुक्त हुआ जा सकता है। इसीलिए मानव को विचार करना चाहिए कि वह तो जन्म, जरा और मृत्यु से रहित निरंजन स्वभावी आत्मा है । अत: इस दुर्लभ मानव भव में निज आत्म तत्त्व को समझने का प्रयास करें और संसार की
सभी वस्तुओं को पर समझते हुए अपनी आत्मा के वास्तविक स्वरूप का चिन्तन करें, उसी का ध्यान करें।
अब प्रश्न यह है कि ध्यान किया कैसे जाय ? ध्येय क्या है ? जब तक ध्येय का ज्ञान नहीं होगा तब तक ध्यान किसका किया जाय ?
वास्तव में निश्चय दृष्टि से शुद्धात्मा ही हमारा परम ध्येय है, किन्तु व्यावहारिक दृष्टि से पंच परमेष्ठी ध्येय हैं। अरिहंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय और साधु - ये पाँचों परमेष्ठी आत्मा में ही विराजते हैं । इसलिए आत्मा ही हमारा परम ध्यान केन्द्र है।
जो रत्नत्रय को धारण करके ज्ञान-ध्यान में लीन रहते हैं, वे साधु परमेष्ठी हमारे ध्येय हैं। जो जिनागम के सिद्धान्तों को जानते हैं और वीतराग धर्म की देशना से अन्यों के कल्याण में प्रवृत्त हैं, ऐसे साधु परमेष्ठी हमारे ध्येय हैं। जो मुनियों में श्रेष्ठ हैं, जिन्होंने सांसारिक विषयों को तुच्छ समझ कर छोड़ दिया है और आत्म-कल्याण हेतु शिक्षा-दीक्षा देते हैं, ऐसे आचार्य परमेष्ठी हमारे ध्येय हैं। जिन्होंने चार घातिया कर्म नष्ट कर दिये हैं और लोकालोक को प्रकाशित कर रहे हैं, ऐसे अरहंत परमेष्ठी हमारे ध्येय हैं। इनके अतिरिक्त
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/57
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