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जैन दर्शन में लोक की संरचना
जैन दर्शन में कार्तिकेय स्वामी महानाचार्य हुए हैं, उन्होंने कार्तिकेय अनुप्रेक्षा में लोक शब्द की व्युत्पत्ति करते हुए • लिखा कि लोक शब्द लुक् धातु से बना है जिसका अर्थ है देखना । जितने क्षेत्र में जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । सर्व आकाश अनन्त प्रदेशी है, उसके बहुमध्य में लोक है, यह असंख्यात प्रदेशी है। लोक के मध्य में मेरूपर्वत है । सुमेरू पर्वत के नीचे गौस्तनाकार आठ प्रदेश स्थित हैं। जिस भाग में वे प्रदेश स्थित हैं, वही लोक का मध्य है और जो लोक का मध्य है, वही आकाश का मध्य है, क्योंकि समस्त आकाश के मध्य में लोक स्थित है।
लोक पुरुषाकार है । कोई पुरुष दोनों पैर फैलाकर और दोनों हाथों को कटिप्रदेश के दोनों ओर रखकर यदि खड़ा हो तो उसका जैसा आकार होता है, वैसा ही आकार लोक का जानना चाहिए। तीनों लोकों में मेरू पर्वत के तल से नीचे सात राजू प्रमाण ऊर्ध्वलोक है। मध्यलोक मेरू प्रमाण है। जो तीनों लोकों का माप करता है, उसे मेरू कहते हैं । मध्यलोक की ऊँचाई १ लाख ४० योजन है । मध्यलोक की यह ऊँचाई ऊर्ध्वलोक में सम्मिलित है। अतः ऊर्ध्वलोक की यथार्थ ऊँचाई १ लाख ४० योजन कम सात राजू है। यह मध्यलोक रत्नप्रभा नामक पृथ्वी पर स्थित है। इस पृथ्वी के नीचे शर्करा, बालुका, पंक, धूम, तम एवं महातम प्रभा नामक पृथिवियाँ हैं। सप्तम पृथ्वी के नीचे एक राजू निगोद स्थान है, जिसे कलकल भूमि कहते हैं। ये सभी पृथिवियाँ घनोदधि, घनवात और तनुवात नाम के वातवलयों से वेष्ठित हैं। मेरु के नीचे यह सब सात राजू
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लोकेश जैन
क्षेत्र अधोलोक कहलाता है तथा मेरु से ऊपर सौधर्म स्वर्ग के ऋजुविमान के तल से लेकर लोक के शिखर पर्यन्त सात राजू क्षेत्र को ऊर्ध्व लोक कहते हैं। मेरू पर्वत की चूलिका एवं ऋजुविमान में एक बाल मात्र का अन्तर है। सोलह स्वर्ग, नौ ग्रेवेयक, पाँच अनुत्तर तथा सिद्ध शिला ये सब ऊर्ध्व लोक में सम्मिलित हैं। यह लोक नीचे से चौड़ा (वेत्रासन मोटे के आकार का), बीच में झालर जैसा एवं ऊपर मृदंग के समान है । अर्थात् दोनों तरफ सँकरा, बीच में चौड़ा है।
यह लोक अकृत्रिम, अनादि अनन्त एवं स्वभाव से निष्पन्न है। जीव-अजीव द्रव्यों से भरा है, समस्त आकाश का अंग है और नित्य है । अन्य धर्म इसे कछुए की पीठ पर या शेषनाग के फन पर ठहरा हुआ मानते हैं। यह अविनाशी स्वयंसिद्ध एवं अनादि-निधन है । इसका कोई ईश्वर, स्वामी या कर्ता नहीं है।
इस लोक में पापकर्म के फल से जीव अधोलोक में, पुण्यकर्म के फल से ऊर्ध्वलोक में, पुण्य-पाप की समानता होने पर मध्यलोक में एवं दोनों का अभाव होने पर सिद्धलोक का वासी बनता है ।
अधोलोक में रत्नप्रभा पृथ्वी के तीन भाग हैं। १. खर भाग, २. पंक भाग, ३. अब्बहुल भाग । इनमें खर भाग में असुर कुमार जाति के देवों को छोड़कर सात प्रकार के व्यन्तरवासी देव रहते हैं। पंक भाग में असुर और राक्षसों का निवास है । अब्बहुल भाग में प्रथम नरक का प्रारंभ है। रत्नप्रभा, शर्कराप्रभा आदि सात नरक नीचे-नीचे एक-एक रज्जु प्रमाण आकाश में हैं। इनमें ८४ लाख बिल हैं। इनमें प्रथम नरक में नारकियों की ऊँचाई सात धनुष तीन हाथ और छह
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/59
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