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का आत्मा के साथ बंध के काल को स्थिति कहते हैं उस काल के समाप्त होने पर वे कर्म परमाणु फल देकर खिर जाते हैं । (४) अनुभाग बंध :- फल देने की शक्ति को अनुभाग बंध कहते हैं। जब वे कर्म अपनी स्थिति पूरी कर उदय में आते हैं, तब जीव में राग-द्वेष - मोह भाव की उत्पत्ति करते हैं - ऐसा निमित्त नैमित्तिक सम्बन्ध ही भावबंध है, फिर भावबंध - राग-द्वेष - मोह भावों से आत्मा में कम्पन होता है उससे नये कर्म परमाणु आत्मा में बंधते हैं, यह द्रव्यबंध है । फिर द्रव्यबंध परमाणु का उदय आने पर जीव में राग-द्वेषमोह भाव उत्पन्न होते हैं। यह भावबंध है । इस तरह अनादि काल से इस जीव के द्रव्यबंध से भावबंध और भावबंध से द्रव्यबंध चल रहा है। इसलिए यह जीव अनादिकाल से चौरासी लाख योनियों में जन्म मरण कर रहा है।
इस अनादिकाल सन्तति को छेदने का उपाय केवल सम्यग्दर्शन की प्राप्ति होने पर ही संभव है । सम्यग्दर्शन के साथ ही सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति होती है और राग, द्वेष की निवृत्ति के लिए सम्यक्चारित्र बलपूर्वक धारण करना पड़ता है। सम्यक्चारित्र में ५ महाव्रत अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह हैं। व्रतों
धारण करके मुनि अवस्था धारण कर तप के बल पर आठों कर्मों को नष्ट कर सिद्ध दशा प्राप्त कर सकता है । सम्यग्दर्शन प्राप्ति के लिए १. जीव तत्त्व, २. अजीव तत्त्व, ३. आस्रव तत्त्व, ४. बंध तत्त्व, ५. संवर तत्त्व, ६. निर्जरा तत्त्व, ७. मोक्षतत्त्व - इन सातों तत्त्वों को समझना आवश्यक है।
जीव तत्त्व - जीव तत्त्व में अनन्त गुण हैं। उनमें मुख्य ज्ञान गुण अनन्त शक्ति रूप है, जिसको ज्ञानावरण कर्म ने आवरण कर रखा है।
ज्ञानावरण कर्म - ज्ञानावरण कर्म के क्षय होने पर केवलज्ञान सर्वज्ञता प्रगट हो जाती है और तीनों लोकों की तीनों काल की बात युगपद् जानते हैं ।
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दर्शनावरण कर्म - जीव में तीनों लोकों को देखने की शक्ति है, परन्तु वह दर्शनावरण कर्म के आवरण से छिपी हुई है। उसके क्षय होने पर केवलदर्शन प्रगट हो जाता है ।
उसको अन्तराय कर्म ने ढक रखा है, उसके क्षय होने अन्तराय कर्म - जीव में अनन्त वीर्य शक्ति है, पर अनन्तवीर्य उत्पन्न हो जाता है ।
मोहनीय कर्म - दर्शन मोहनीय कर्म के उदय से तत्त्व श्रद्धान नहीं होता है और शरीर आदि को ही जीव अपना मानता है । चारित्र मोहनीय के उदय से राग-द्वेष निरन्तर करता है।
नाम कर्म - तीनों शरीर की रचना औदारिक, तैजस, कार्मण नामकर्म के उदय से बनती है।
गोत्र कर्म - उच्चता, नीचता इस कर्म के उदय से होती है।
वेदनीय कर्म आत्मा में अनन्त अव्याबाध सुख है, परन्तु वेदनीय कर्म ने ढक रखा है और इस जीव को निरन्तर सुखी - दुःखी करता रहता है।
आयु कर्म - आत्मा को औदारिक शरीर से बांध रखता है और एक भुज्यमान आयु खत्म होने के पहले ही अगले भव की आयु यह जीव बांध लेता है और वहीं जाकर जन्म लेता है जिसकी आयु बंधी थी । (२) अजीव तत्त्व पुद्गल परमाणु, धर्म, अधर्म, आकाश, काल ये अजीव तत्त्व हैं। इनमें जानने देखने की शक्ति नहीं है ।
• राग, द्वेष, मोह के द्वारा
(३) आस्रव तत्त्व कर्मों का आत्मा में आना
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(४) बंध तत्त्व कर्मों का प्रकृति, प्रदेश, स्थिति, अनुभाग सहित कार्मण शरीर में बंधना ।
(५) संवर तत्त्व - राग, द्वेष के अभाव में कर्म का आत्मा में आना रुक जाना ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/43
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