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जैन दर्शन में कर्म - सिद्धान्त
डॉ. प्रेमचन्द रांवका
१. संचित कर्म - पूर्वजन्मों में किये गये उन कर्मों का ढ़ेर, जिनका फल भोगना बाकी है।
भारत के सभी आस्तिक दर्शनों में जीव जगत की विविधता को स्वीकार किया गया है। उसे सहेतुक माना है। उस हेतु को वेदान्ती अविद्या, बौद्ध वासना, सांख्य क्लेश, न्याय वैशेषिक अदृष्ट तथा जैन 'कर्म' जो वर्तमान में भोगना है। कहते हैं। कई दर्शन कर्म का सामान्य निर्देशमात्र करते हैं और कई उसके विभिन्न पहलुओं पर विचार करते - करते बहुत आगे बढ़ जाते हैं।
न्याय दर्शन के अनुसार अच्छे-बुरे कर्मों का फल ईश्वर के माध्यम से मिलता है। सांख्य कर्म को प्रकृति का विकार मानता है । बौद्धों ने चित्तगत वासना को कर्म माना है। जो सुख-दुःख का हेतु है। जैनदर्शन कर्म को स्वतंत्र तत्त्व मानता है। कर्म अनन्त परमाणुओं स्कन्ध है । वे समस्त लोक में जीवात्मा की अच्छीबुरी प्रवृत्तियों के द्वारा उसके साथ बंधते हैं। बंधने के बाद, तुरन्त फल न देकर उनका परिपाक होता है। यह सत् अवस्था है। परिपाक के बाद उनसे सुख-दुःखरूप फल मिलता है, यह उदय अवस्था । अन्य दर्शनों में कर्मों की क्रियमाण, संचित और प्रारब्ध अवस्थायें बतायी हैं। ये ठीक क्रमशः बन्ध, सत् और उदय की
समानार्थक हैं।
अन्य दर्शन में कर्म को चार प्रकार का माना गया है १. शुभ और शुभ विपाक, २. शुभ और अशुभ विपाक, ३. अशुभ और शुभ विपाक, ४. अशुभ और अशुभ विपाक । विपाक का अर्थ है – पकना । आध्यात्मिक परिभाषा में कर्म विपाक का अर्थ है जीवों के शुभ-अशुभ कर्मों का शुभ-अशुभ परिणाम या फल । कर्म विपाक तीन प्रकार के कर्मों का होता है
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२. प्रारब्ध कर्म - संचित कर्मों का वह अंश
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३. क्रियमाण कर्म - वर्तमान भव में किये जाने वाले कर्म – इनमें से कुछ का फल तो इसी जन्म में मिल जाता है; बाकी कर्म संचित कर्मों के ढ़ेर से जुड जाते हैं।
क्रियमाण कर्म चार प्रकार के होते हैं १. नित्यकर्म - खानपान, स्नान, सोना आदि । २. नैमित्तिक कर्म- जो कर्म किसी निमित्त से किये जाते हैं। जीवकार्थ - नौकरी, व्यवसाय ।
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३. काम्य कर्म - पूजा-पाठ, अनुष्ठान (उद्देश्य) कार्य में सफलता, अनिष्ट निवारण आदि के लिये । ४. निषिद्ध कर्म - जिन कर्मों का धर्मशास्त्र में निषेध किया गया हो । पाप, अपराध ।
कर्म विपाक के सिद्धान्त के अनुसार आत्मा को है, जब तक कि संचित कर्मों का क्षय न हो जाय। अपने कर्मों का फल जन्म-जन्मान्तर में भोगना पड़ता जन्म-मरण के बन्धन से मुक्त होना मोक्ष, निर्वाण या कैवल्य कहते हैं । वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों परम्पराएँ कर्म विपाक के सिद्धान्त को मानती हैं। पुनर्जन्म का सिद्धान्त इसी पर आधारित है; क्योंकि पुनर्जन्म के बिना कर्मों का फल नहीं भोगा जा सकता। शुभ कर्मों का अशुभ फल तब होता है, जब कोई कर्म फल की आकांक्षा से या उसमें आसक्त होकर किया जावे। दान, परोपकार आदि पुण्य कार्य भी यदि प्रतिफल की इच्छा से किये जाते हैं, तो बंध का कारण होते हैं। अशुभ
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/46
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