________________
लघुतत्त्वस्फोट के परिप्रेक्ष्य में आ० अमृतचन्द्रसूरि के कृतित्व का वैशिष्ट्य
डॉ. श्रेयांसकुमार जैन, बड़ौत
अध्यात्म विद्या पारङ्गत आचार्यप्रवर श्री अमृतचन्द्रसूरि दिगम्बर परम्परा के उद्भट मनीषी थे। इन्होंने आचार्य कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार और पञ्चास्तिकाय की टीका लिखकर उनकी आध्यात्मिक और दार्शनिक दृष्टियों का पल्लवन तथा सम्यक् व्याख्यान कर महती कीर्ति अर्जित की। साथ ही पुरुषार्थसिद्धयुपाय नामक श्रावकाचार विषयक ग्रन्थ, आचार्य उमास्वामी कृत तत्त्वार्थसूत्र के आधार पर तत्त्वार्थसार और जिनस्तवन रूप में लघुतत्त्वस्फोट लिखकर जैन वाङ्मय की समृद्धि में महान् योगदान दिया ।
लघुतत्त्वस्फोट की प्राप्ति भगवान महावीर के पच्चीस सौवें निर्वाण महोत्सव काल में हुई अतः इससे पूर्व अमृतचन्द्रसूरि के कृतित्व में इसका उल्लेख भी नहीं मिलता है। इसकी पाण्डुलिपि पण्डित श्री पन्नालाल साहित्याचार्य प्रभृति विद्वानों को उपलब्ध करायी गई, उन्होंने संशोधन और अनुवाद करके महनीय कार्य किया। इसके अनन्तर पण्डित श्री ज्ञानचन्द बिल्टीवाला जयपुर द्वारा भी विशेषार्थ सहित व्याख्या लिखी गई। इन मनीषियों ने यह अद्भुत कृति स्वाध्यायियों के स्वाध्याय का विषय बनायी । यह इनकी महती कृपा है और जिनागम के प्रति विशेष भक्ति का निदर्शन है।
“लघुतत्त्वस्फोट” आचार्य अमृतचन्द्रसूरि की रचना है क्योंकि उन्होंने इसकी अन्तिम सन्धि में अमृतचन्द्रसूरि का उल्लेख किया है।' ग्रन्थ समाप्ति के अनन्तर श्लोक में “अमृतचन्द्र कवीन्द्र” पद का प्रयोग है।' आचार्य अमृतचन्द्र के साथ कवीन्द्र विशेषण पूर्ण सार्थक है क्योंकि उन्होंने अपनी आध्यात्मिक और दार्शनिक शैली में समयसार कलश और लघुतत्त्वस्फोट जैसी बेजोड काव्यकृतियों का सृजन किया है। इनमें इनका कवीन्द्रत्व स्पष्ट दिखता है। स्तुति काव्यों में लघुतत्त्वस्फोट से श्रेष्ठ रचना देखने को नहीं मिलती है। यद्यपि वाग्मी आचार्य समन्तभद्र द्वारा रचित स्तोत्र काव्य बहुत महत्त्वपूर्ण हैं तथापि अध्यात्म और सिद्धान्त से परिपूर्ण यह स्तुति काव्य अतुलनीय है। इसका प्रत्येक पद्य काव्य के समस्त गुणों से समलंकृत है। इसकी भाषा प्रौढ है। शैली गम्भीर है । छन्द, अलंकार, रस, गुण, रीति आदि जो काव्य के विशिष्ट तत्त्व होते हैं वे सभी इसमें विद्यमान हैं । समयसार कलश के समान ही रचना है अतः इसमें कोई सन्देह नहीं है कि यह रचना अमृतचन्द्रसूरि की है। आचार्य श्री अमृतचन्द्रसूरि कृत ग्रन्थत्रय ( समयसार, प्रवचनसार, पंचास्तिकाय) की टीकाएँ अपने आप में परिपूर्ण हैं और पुरुषार्थसिद्धयुपाय, तत्त्वार्थसार, अमृतकलश लोकोत्तर रचनाएँ हैं, फिर भी लघुता प्रकट करते हुए उन्होंने कहा है कि नाना प्रकार के वर्णों से पद बन गये, पदों से वाक्य बन गये और वाक्यों से यह ग्रन्थ बन गये - इनमें हमारा कुछ भी कर्तृत्व नहीं है। इस शक्तिमणित कोश नामक लघुतत्त्वस्फोट में कहीं भी कर्तृत्व का अहंकार नहीं झलकता है। प्रत्येक स्तुति के बाद स्वयं को जिनत्व के प्रति समर्पण के साथ आत्मोपलब्धि की कामना की गई है। सर्वत्र सर्वज्ञ रूप की रचना की है।
-
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/26
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org