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आ. अमृतचन्द्र एवं उनका लघुतत्त्वस्फोट
| वैद्य प्रभुदयाल कासलीवाल
आचार्य अमृतचन्द्र ने अपनी रचनाओं के द्वारा तत्त्वदर्शन ही नहीं कराया बल्कि जैन समाज एवं जैनागम एक दिशा प्रदान की है। उन्होंने पाँचों ही पापों को हिंसा में गर्भित किया है, तथा समझाया है कि यह जीव पर की हिंसा के भावों से स्व-हिंसा करता है तथा कर्मबन्ध करके चौरासी लाख योनियों में भ्रमण करता है, कर्मबन्ध करके अपने स्व-गुणों को स्वयं ही ढकता है और यह ही इस जीव का सबसे बड़ा अज्ञान है कि वह अपराध करता है, लेकिन यह नहीं समझता कि अपराध करके पर की हानि नहीं करता बल्कि स्वयं की ही हानि करता है ।
आचार्य अमृतचन्द्र सन् ९०५ से ९५५ तक आचार्यपद और मुनिपद पर आसीन थे । आप चोटी के विद्वान, कालिदास और माघ कवि समान कवि एवं ऊँचे दर्जे के तपस्वी थे। आपने घोर तप करते हुए अनेक ग्रन्थों की स्वतन्त्र रचना तथा कुन्दकुन्द आचार्य द्वारा रचित समयसार की आत्मख्याति, प्रवचनसार की तत्त्वप्रदीपिका तथा पंचास्तिकाय की समयव्याख्या की। आपकी स्वतन्त्र रचनाओं में तत्त्वार्थसार, पुरुषार्थसिद्धिउपाय, परमअध्यात्म तरंगिणी तथा लघुतत्त्वस्फोट जैसी रचनाएँ उपलब्ध हैं । लघुतत्त्वस्फोट जैन वाङ्मय का संस्कृत भाषा के सर्वश्रेष्ठ ग्रन्थों में से एक ग्रन्थ है इस ग्रन्थ में तीर्थंकरों की स्तुति के माध्यम से तत्त्वज्ञान कराया गया है। लघु शब्द से आचार्यजी ने अपने ज्ञान की लघुता दिखाई है क्योंकि पूर्णज्ञान सिन्धु सर्वज्ञ भगवान ही होते हैं, सर्वज्ञ भगवान की वाणी को गणधर समझते हैं तथा आचार्य गणधरों की वाणी का अनुसरण करते हैं। लघु शब्द लगाने का दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि भगवान की वाणी का अनन्तवाँ भाग ही लिखने में आता है। अस्तु ! कुछ भी हो यह ग्रन्थ भगवान की वाणी का ही एक भाग है। इस ग्रन्थ का अनुवाद सर्वप्रथम पद्भानाम जैनी ने केलीफोरनिया में अंग्रेजी भाषा में किया। इसके पश्चात् पण्डित पन्नालालजी साहित्याचार्य द्वारा हिन्दी भाषा में पण्डित कैलाशचन्दजी की विस्तृत भूमिका के साथ प्रकाशित हुआ | श्री ज्ञानचन्द बिल्टीवाला ने इस ग्रन्थ का अनुवाद किया जो अखिल भारतवर्षीय अनेकान्त विद्वत परिषद प्रकाशित करवाया। मैंने (प्रभुदयाल कासलीवाल) भी इस ग्रन्थ का सरलतम हिन्दी भाषा में पद्यानुवाद किया है जो सरस्वती ग्रन्थमाला की ओर से सन् २००० में प्रकाशित किया गया है।
यह ग्रन्थ अनेक छन्दों में रचा गया है। छन्दों के नाम वसन्ततिलका, वंशस्थ, अनुष्टुप, मन्जुभाषिणी, महर्षिणी, वियोगिनी तथा मंत्रमयूर हैं। प्रथम सर्ग में चौबीस तीर्थंकरों की एक श्लोक में स्तुति करते हुए तत्त्वज्ञान कराया गया है।
प्रथम सर्ग की चतुर्थ स्तुति -
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यद्भाति भाति तदिहाथ च (न) भात्यभाति । नाभाति भाति स च भाति न यो नभाति ।।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/35
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