________________
आज टेलीवीजन, मोबाइल, टेलीफोन का युग है – शब्द सन्तति के विषय में आचार्य फरमाते हैं - 'शब्दों की सन्तति चलती है शाब्दिक प्रवाह न मिटने से।४।१३' सर्ग ५ में आचार्य संसार का स्वरूप बतलाते हुए कहते हैं -
सब ही पदार्थ यहाँ सत्स्वरूप हैं, निज स्वरूप से सब न्यारे। सत्स्वरूप सादृश्य सभी में महा सत्ता में सब गर्भित रे॥ अनन्त पदार्थ जगत में हैं परिणमन प्रतिक्षण करते हैं। परिणमन प्रतिक्षण होने से पर्याय अनन्त बदलते हैं। पर्याय पुरातन हटती है वह नव स्वरूप पा जाती है।
पर्याय अनन्त पदार्थों की प्रभु ज्ञान में भासित होती हैं ।।५ आत्मा में अनन्त चतुष्टय वैभव अविनाशी और अनन्त हैं -
अनन्त चतुष्टय वैभव इस आत्मा में अनादि अनन्त कहा। परिवर्तन क्रम क्रम से हो ऐसा ही द्रव्य स्वभाव रहा ।। इस ही स्वभाव की सीमा में प्रभु का वैभव भी उदित हुआ।
नित्य और अविनाशी बन अविचल शोभा को प्राप्त हुआ।। अर्थात् जीव को अपनी स्वभाव की सीमा में रहना पड़ता है। पर्याय और द्रव्य अभिन्न बनकर रहते हैं
पर्याय द्रव्य को ना छोड़े और द्रव्य नहीं पर्याय बिना।
द्रव्य स्वरूप पर्याययुक्त है पर्याय द्रव्य में निहित सदा ॥५॥२० सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान होने पर भी पुरुषार्थ करने पर ही कर्मक्षय होकर मुक्ति प्राप्त होती है।
पुरुषार्थ बने सम्यक् जिसका अरु लक्ष्य मुक्ति का निश्चित हो।
क्रम क्रम से शुद्ध बने वह तब ही मुक्ति सम्पदा निश्चित हो ॥६॥१० क्योंकि असाता वेदनीय काल में वीर प्रभु के साथ भी ऐसा ही हुआ -
निकाचित कर्म उदय में आते फल देकर क्षय होते थे। प्रभु ! अकेले उन्हें भोगते वन खण्डों में तप करते थे।। धैर्य प्रभु का अद्वितीय था कातर कभी न होते थे।
शुद्धोपयोग में प्रतिक्षण रह आत्मा को शुद्ध बनाते थे।। इसके फल स्वरूप -
केवलज्ञान सम्पदा पायी वे परिपूर्ण इसी से हैं। अनन्तवीर्य के धारी हैं वे सदा अजेय इसी से हैं।। आत्मतत्त्व को पाया प्रभु ने हुए अवस्थित सम्यक् रूप । नित्यरूप जिनवर का है यह क्षणिकवाद का खण्डन रूप॥४॥१९
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/37
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org