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केवलज्ञान प्राप्त किया और अरहंत भगवान बने। इससे पूर्व वे मुनिराज महावीर थे, राजकुमार थे। “भगवान की दिव्यध्वनि प्रयोजनभूत मूलवस्तु की मुख्यता खिरती है। वह मूलवस्तु जीवादि तत्त्वार्थ हैं और उसमें भी सम्यग्दर्शन, ज्ञान एवं चारित्र की एकतारूप मुक्ति
मार्ग का निरूपण होता है।” केवलज्ञान होने के बाद भगवान महावीर की दिव्यध्वनि खिरी, जिसमें छह द्रव्य, सात तत्त्व रूप मोक्षमार्ग का उद्घाटन हुआ ।
केवलज्ञानी तीर्थंकर की धर्मसभा समवशरण कहलाती है। उसकी रचना सौधर्म इन्द्र के माध्यम से होती है। वह गोलाकार होती है, बीच में भगवान विराजमान होते हैं और चारों ओर श्रोतागण बैठते हैं। उसमें चारों ओर मिलाकर १२ सभाएँ होती हैं, जिनमें मुनिराज, आर्यिका श्रावक एवं श्राविकाओं के साथसाथ देव-देवांगनाएँ तथा पशु-पक्षी भी श्रोताओं के रूप में बैठते हैं। चारों ओर बैठे लोगों में से किसी की ओर से उनकी पीठ नहीं होती, सभी को ऐसा लगता है कि मानो भगवान का मुख उनकी ही ओर है। उनका मुख चारों ओर होने से उन्हें चतुर्मुख भी कहा है। उनके चार मुख नहीं होते, परन्तु कुछ ऐसा अतिशय होता है कि उनका मुख चारों ओर बैठे जीवों को दिखाई देता
है । इसी तरह के अनेक अतिशय केवली भगवान के समवशरण में देखने में आते हैं।
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केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद भगवान महावीर की दिव्यध्वनि दिन में तीन-तीन बार खिरती थी और प्रत्येक बार का समय छह घड़ी होता था। एक घड़ी २४ मिनट की होती है। इस प्रकार प्रतिदिन कुल ७ घंटे और १२ मिनट उनकी दिव्य देशना होती थी ।
भगवान की दिव्य देशना को गौतम गणधर ने ११ अंग १४ पूर्वी में गुथित किया और परवर्ती आचार्यों के माध्यम से उसका कुछ अंश आज हमें द्रव्यानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और कथानुयोग के रूप में उपलब्ध है। इनके आधार पर भारत के एवं विदेशों के विश्वविद्यालयों एवं अन्य संस्थानों में अनुसंधान एवं उच्च स्तर के शोध हो रहें हैं, जो मानव समाज के लिए अत्यन्त उपयोगी प्रमाणित होंगे। केवलज्ञान में समाहित सम्पूर्ण तत्त्वज्ञान का लाभ तो हम जैसे छद्मस्थ जीवों को इस काल में मिलना संभव नहीं है, परन्तु आत्मकल्याण एवं मानव हित के लिए उनकी देशना का उपलब्ध अंश युग-युग तक कल्याणकारी हो ।
ए - ३१, अनिता कालोनी, जयपुर (राज.)
स्वयमेवात्मनात्मानं हिनस्त्यात्मा प्रमादवान् । पूर्णं प्राण्यन्तराणां तु पश्चाद्स्याद्वा न वा वधः ॥
प्रमादी है, असावधान है, दूसरों को कष्ट पहुँचाने की भावना रखता है, वह पहले तो स्वयं अपनी ही आत्मा का घात करता है। दूसरे प्राणियों
का घात तो पीछे की बात है, वह हो या न हो ।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-1/20
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भगवान महावीर
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