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व्यवहार को निश्चय का बीज लिखा है। यानि व्यवहार उसी कथन को सम्पूर्ण सत्य मानकर वैसा ही निरूपण ही निश्चय रूप में परिवर्तित हो जाता है। जो निश्चय करता है। द्रव्य को सर्वथा शुद्ध मानता है परन्तु आप
और व्यवहार में किसी एक का भी पक्षपात करता है, साक्षात् रागी हो रहा है। उस विकार को पर (अन्य) वह देशना का फल प्राप्त नहीं करता। निष्पक्षता ही फल मानकर उससे बचने का उपाय नहीं करता। यद्यपि की उत्पादक है। पुरुषार्थसिद्धयुपाय में कहा भी है - अशुद्ध है तथापि भ्रम से अपने को शुद्ध मानकर एक व्यवहारनिश्चयौ यः प्रबुध्यतत्त्वेन भवति मध्यस्थः। उसी शुद्ध आत्मा का चिन्तन करता है। द्रव्य से पर्याय प्राप्नोति देशनायाः स एवं फलमविकलं शिष्यः॥ को सर्वथा भिन्न मानकर, अस्पृष्ट मानकर सन्तुष्ट हो
किसी नय की अवहेलना वस्तु तत्त्व की जाता है, जबकि द्रव्य से पर्याय तन्मय है। वह रागादिक अवहेलना है। नय तो जानने के लिए दो आँखों के विकार को पर्याय मात्र में मानता है, विकारों का आधार समान हैं। समय-समय पर प्रत्येक नय काम में आता पर्याय ही मानता है। इस मान्यता का जीव दही, गुण है। आचार्य अमृतचन्द्र स्वामी ने गोपिका के उदाहरण खाकर प्रमादी हुए के समान आत्मस्वरूप से च्युत से अनेकान्तमय जैनी नीति को प्रस्तुत किया है- बहिरात्मा है। एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण।
निश्चयैकान्ती एक ज्ञान मात्र को ही वास्तविक अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थान नेत्रमिव गोपी॥ मोक्षमार्ग मानता है, तथा चारित्र तो स्वतः हो जायेगा, (पुरुषार्थसिद्धयुपाय २२५) ऐसा जानकर चारित्र और तप हेतु उत्साही नहीं होता।
नियतिवाद, क्रमबद्ध पर्यायत्व और कूटस्थता के एकान्त जैसे गोपिका मक्खन निकालने के लिए मथानी
ज्वर से पीड़ित रहता है। समयप्राभृतादि अध्यात्म के की रस्सी से दोनों छोरों को पकड़े रहती है, गौण मुख्य
उपदेश का अनर्थकर, सम्यग्दृष्टि अबन्धक है एवं वह करती है, उसीप्रकार तत्त्व जिज्ञासु रस्सी स्थानीय प्रमाण
भोगों से निर्जरा को प्राप्त होता है, ऐसा श्रद्धान कर भोग के दोनों अंश व्यवहर-निश्चय, इनमें से किसी को
व पाप से विरक्त नहीं होता। शुभोपयोग को किसी भी छोड़ता नहीं है, यथासमय गौण-मुख्य करता है।
प्रकार शुद्धोपयोग का साधक नहीं मानता । व्यवहार को निश्चयाभास - जो शुद्ध अध्यात्म ग्रन्थों का निश्चय का साधक नहीं मानता। प्रथम ही निश्चय पठन करके निश्चय नय के वास्तविक अर्थ को न मोक्षमार्ग तथा बाद में व्यवहार का सदभाव मानता है। जानता हुआ व्यवहार धर्म, शुभ प्रवृत्ति, शुभोपयोग व्यवहार के कथन को अवास्तविक मानता है. कहता रूप अणुव्रत महाव्रत रूप सराग चारित्र को सर्वथा हेय है कि यह कहा है, ऐसा है नहीं। विवक्षा को नहीं मानता है, जिसने पाप क्रियाओं को अब तक छोड़ा समझता। शद्धोपयोग के गीत गाता हआ अशुभ नहीं है, जिसे गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि विषयक परिणामों से नरकादि कगति का पात्र होता है । इसप्रकार करणानुयोग का ज्ञान नहीं है, जो शुभ को सर्वथा बन्ध निश्चयाभासी स्वयं तो अपनी हानि करता ही है. साथ का कारण मानता है तथा चारित्र एव चारित्रधारी मुनि, ही समाज को भी पाप पंक में डबो देता है। आर्यिका, श्रावक, श्राविकाओं की उपेक्षा करता है,
व्यवहारैकान्त - जिसको निश्चय नय के द्वारा जीव को सर्वथा कर्म का अकर्ता मानता है, वह
वस्तु स्वरूप का ज्ञान नहीं है, मात्र बाहरी क्रियाकाण्ड निश्चयाभासी है। उसका निश्चय आभासमात्र है, वह
को धारण करता है, देखादेखी और भाव के बिना निश्चयैकान्ती है।
अर्थात् बिना निर्धारण के तप संयम अंगीकार करता है, जीव को शुद्ध निश्चय नय से कर्म का अकर्ता जिसको अपनी भाव-परिणति बिगड़ती रहने का भय कहा गया है एवं शुभ भाव को भी हेय कहा गया है। नहीं है. अन्तरंग में कषाय की तीव्रता है. जो कषाय
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/21
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