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अध्यात्म और सिद्धान्त
प्रारम्भ में जिनवाणी बारह अंगों और चौदह पूर्वों में विभक्त थी । अंगों और पूर्वो का लोप हो जाने पर आचार्यों ने जो ग्रन्थ रचना की है, वह उत्तरकाल
चार अनुयोगों में विभक्त हुई। उनका नाम प्रथमानुयोग, करणानुयोग, चरणानुयोग और द्रव्यानुयोग है। जिसमें एक पुरुष से सम्बद्ध कथा होती है उसे चरित कहते हैं और जिसमें त्रेसठ शलाका पुरुषों के जीवन से सम्बद्ध कथा होती है उसे पुराण कहते हैं। ये चरित और पुराण दोनों प्रथमानुयोग कहे जाते हैं। आचार्य समन्तभद्र ने इस अनुयोग को पुण्यवर्धक तथा बोधि और समाधि का निधान कहा है। अर्थात् जहाँ एक ओर इसमें उपयोग लगाने से पुण्यबन्ध होता है, वहीं दूसरी ओर रत्नत्रय की तथा उत्तम ध्यान की प्राप्ति भी इससे होती है । इस अनुयोग को प्रथम स्थान दिया गया है तथा उसे नाम भी प्रथमानुयाग दिया है। जैसे सबसे पहली कक्षा और परीक्षा का नाम प्रथमा है; क्योंकि प्राथमिकों के लिये, जो उसमें प्रवेश करना चाहते हैं, वही उपयोगी है, उसी तरह जिनवाणी में प्रवेश करने वाले प्राथमिकों
लिये प्रथमानुयोग का स्वाध्याय उपयोगी होता है। कथाओं में रुचि होने से पाठक का मन उसमें रम जाता है और फिर धीरे-धीरे वह उसमें वर्णित रहस्य को जानने के लिये उत्सुक हो उठता है । स्व. बाबा भागीरथजी वर्णी कहा करते थे कि पद्मपुराण की कथा सुनकर मैंने पढ़ना सीखा और मैं जैनधर्म स्वीकार करके वर्णी बन गया। अतः इस अनुयोग की महत्ता किसी भी अन्य अनुयोग से कम नहीं है ।
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२. दूसरे अनुयोग का नाम करणानुयोग है। करण का अर्थ परिणाम भी है और गणित के सूत्रों को
स्व. सिद्धान्ताचार्य पं. कैलाशचन्द्रजी शास्त्री
भी कहते हैं । इसीसे श्वेताम्बर परम्परा में इसे गणितानुयोग भी कहते हैं। इसमें लोक और अलोक का विभाग, उत्सर्पिणी-अवसर्पिणी कालों का विभाग, तथा गति, इन्द्रिय आदि मार्गणाओं का कथन होता है। एक तरह से यह अनुयोग समस्त जिनशासन का प्राणभूत है । इसके अध्ययन से संसार में भटकते हुए संसारी जीव को अपनी वर्तमान दशा का, उसके कारणों का तथा उससे निकलने के मार्ग का सम्यक्बोध होता है । करणानुयोग जीव की आन्तरिक दशा को तोलने के लिये तुला जैसा है। करणानुयोग के अनुसार जो सम्यग्दृष्टि होता है, वही सच्चा सम्यग्दृष्टि होता है, वही संसार सागर को पार करने में समर्थ होता है ।
३. तीसरे अनुयोग का नाम चरणानुयोग है । इसमें गृहस्थों और मुनियों के चारित्र का, उनकी उत्पत्ति, वृद्धि और रक्षा के उपायों का कथन रहता है। इस अनुयोग का चलन सदा विशेष रहा है - इसी के कारण
आज भी जैनी - जैनी कहे जाते हैं।
४. अन्तिम चतुर्थ अनुयोग द्रव्यानुयोग है। इसमें जीव-अजीव, पुण्य-पाप बन्ध-मोक्ष आदि पदार्थों और तत्त्वों का कथन रहता है । प्रसिद्ध मोक्षशास्त्र (तत्त्वार्थसूत्र) तथा समयसार इसी अनुयोग में गर्भित हैं।
दिगम्बर परम्परा में जो साहित्य आज उपलब्ध है, उसमें सबसे प्राचीन कषायपाहुड़ और षट्खण्डागम हैं। कषायपाहुड़ की रचना आचार्य गुणधर ने और षट्खण्डागम की रचना भूतबली - पुष्पदन्त ने की थी । दोनों ही सिद्धान्तग्रन्थ पूर्वी से सम्बद्ध हैं तथा उनका मुख्य प्रतिपाद्य विषय कर्मसिद्धान्त है। भूतबलीमहावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/7
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