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कोई विरोध प्रतीत नहीं होता। विरोध तो सिद्धान्त और किन्तु आज तो सम्यक्त्व के लिये वस्तुस्वरूप अध्यात्म का पक्ष लेने वालों में है और वह तब तक की उपलब्धि को आवश्यक नहीं माना जाता। आज दूरी नहीं हो सकता, जब तक वे अमृतचन्द्रजी के शब्दों तो चारित्र धारण कर लेने मात्र से ही सब समस्या हल मैं अपने मोह को स्वयं वमन करके सिद्धान्त-अध्यात्म हो जाती है। आगम और अध्यात्म में प्रतिपादित धर्म रूप जिनवचन में रमण नहीं करते। पक्षव्यामोह को सम्यक्त्व से प्रारम्भ होता है। किन्तु आज के लोकाचार त्यागे बिना जिनवाणी का रहस्य उद्घाटित नहीं होता, का धर्म सम्यक्त्व से नहीं, चारित्र से प्रारम्भ होता है। जिनवाणी स्याद्वादनयगर्भित है। जितने वचन के मार्ग इस उल्टी गंगा के बहने से न व्यक्ति ही लाभान्वित होता हैं, उतने ही नयवाद हैं, अत: नयदृष्टि के बिना जिनागम है और न समाज ही। इस स्थिति पर सभी को शान्ति के वचनों का समन्वय नहीं हो सकता। इसी से आचार्य से विचार करना चाहिये। आचार्य समन्तभद्र के अनुसार देवसेन ने नयचक्र में कहा -
जिनेन्द्र शासन में कोई विरोध नहीं है, विरोध हममें हैं। जे णयदिट्ठिविहीणा ताण ण वत्थुसरूवउवलद्धी। वत्थुसरूवविहीणा सम्मादिट्ठी कह होति ।। - श्री आदिनाथ जिनेन्द्र बिम्बप्रतिष्ठा एवं गजरथ 'जिनके नयरूपी दृष्टि नहीं है, उन्हें वस्तु स्वरूप
महोत्सव मदनगंज-किशनगढ़ (राज.) की उपलब्धि नहीं हो सकती, और वस्तु-स्वरूप की
सन् १९७९, स्मारिका से साभार उपलब्धि के बिना सम्यग्दृष्टि कैसे हो सकते हैं?'
अप्रादुर्भावः खलु रागादीनां भवत्यहिंसेति। तेषामेवोत्पत्तिहिंसेति जिनागमस्य संक्षेपः॥
पुरुषार्थसिद्धयुपाय ४४ निश्चय से राग-द्वेषादि भावों का प्रकट न होना ही अहिंसा है और उन रागद्वेषादि भावों का उत्पन्न होना ही हिंसा है। यही जैन सिद्धान्त का सार है।
एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थान नेत्रमिव गोपी॥
पुरुषार्थसिद्धयुपाय २२५ दही की मथानी की रस्सी को खेंचने वाली ग्वालिनी की तरह जिनेन्द्र देव की स्याद्वाद नीति अथवा निश्चय-व्यवहाररूप नीति वस्तु के स्वरूप को एक सम्यग्दर्शन से अपनी
ओर खेचती है तो दूसरे से - सम्यग्ज्ञान से शिथिल करती है और अन्त में सम्यक्चारित्र से सिद्धरूप कार्य को उत्पन्न करने से जैन सिद्धान्त को जीतती है।
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/14
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