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द्रव्य के साधारण गुण
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o आर्यिका शीतलमतिजी संघस्थ : आ. सन्मतिसागरजी महाराज
आत्मकल्याण के लिए सबसे आवश्यक अंग अथवा गुण गुणी के अभेद कथन की अपेक्षा सत् सम्यग्दर्शन है। संसार का प्रत्येक प्राणी सुख चाहता है, रूप ही है, स्वतः सिद्ध है - किसी अन्य व्यक्ति के सुख की उपलब्धि मोक्ष में होती है अत: उसकी ओर द्वारा बनाया हुआ नहीं है, अनादि निधन है, स्वसहाय ही ज्ञानी जीव का पुरुषार्थ होता है। उसके पुरुषार्थ का है और निर्विकल्प है। सीधा अर्थ यह है कि संसार पहला कदम सम्यग्दर्शन है। समन्तभद्र स्वामी ने यथार्थ के अंदर ऐसा एक भी पदार्थ नहीं है, जो अस्तित्त्व देव-शास्त्र-गुरू का तीन मूढ़ताओं तथा आठ मदों से गुण से रहित हो। रहित एवं आठ अंगों से सहित श्रद्धान करने को
२. दूसरा वस्तुत्त्व गुण का अर्थ है - सम्यग्दर्शन कहा है। उमास्वामी ने तत्वार्थ श्रद्धान को अर्थक्रियाकारित्वं वस्तत्वं अर्थात अर्थ क्रियाकारी होना सम्यग्दर्शन बताया है और कुद-कुद स्वामी ने अबद्धस्पष्ट ही वस्तु का वस्तत्त्व है। तषा निवारण, वस्त्र प्रक्षालन, तथा असयुक्त आदि विशेषणों से युक्त आत्मा के श्रद्धान तथा स्नान आदि पानी के कार्य हैं. इन कार्यों से पानी को सम्यग्दर्शन कहा है । सम्यग्दर्शन के सब लक्षण इसी की यथार्थता जानी जाती है। मगतष्णा में यह सब नहीं लक्षण के साधक हैं। सीधे साधे शब्दों में कहा जाय ।
होते इसलिए वह पानी नहीं है किन्तु भ्रममात्र है। तो पदार्थ का सही-सही रूप अपनी बुद्धि में अंकित
३. तीसरा गुण द्रव्यत्व है वह परिणमन-शीलता हो जाय, यही सम्यग्दर्शन है। पदार्थ के सही स्वरूप
लक्षण वाला द्रव्यत्व गुण कहलाता है। द्रव्य की यह को समझने के लिए उसके असाधरण-विशिष्ट गुणों पर
परिणमनशीलता स्वप्रत्यय और स्व-पर प्रत्यय के भेद तो दृष्टि दी ही जाती है पर अस्तित्व, वस्तुत्व, द्रव्यत्व,
से दो प्रकार की होती है। धर्म, अधर्म, आकाश और प्रमेयत्व, अगुरुलघुत्व और प्रदेशत्व-इन छह साधारण
काल इनकी परिणमन शीलता स्वप्रत्यय है । यद्यपि इन गुणों पर भी दृष्टि देना आवश्यक है। इसके बिना वस्तु
___ में भी काल द्रव्य की अपेक्षा स्व पर प्रत्ययपना आता की पूर्णता नहीं होती। यहाँ संक्षेप से इन गुणों के स्वरूप
है। पर उसकी यहाँ विवक्षा नहीं की गई है। जीव और पर विचार करना है।
पुद्गल, इन दो द्रव्यों की परिणमन-शीलता स्व-प्रत्यय १. प्रथम अस्तित्व गुण का अर्थ सत्ता अर्थात् और स्व-पर प्रत्यय दोनों प्रकार की होती है। प्रत्यय मौजूदगी है। मौजूदगी ही पदार्थ का पहला लक्षण है। का अर्थ कारण है अर्थात् निमित्त कारण है। यद्यपि पंचाध्यायीकार ने कहा है।
निमित्त कारण स्वयं कार्यरूप परिणमन नहीं करता है तत्त्वंसल्लाक्षणिकंसन्मानं वा यतः स्वत: सिद्धं । तथापि वह कार्य की सिद्धि में आवश्यक है। उपादान तस्मादनादिनिधनंस्वसहायंनिर्विकल्प च ॥ स्वयं कार्यरूप परिणत है अत: उपादानोपादेयभाव एक तत्त्व अर्थात् पदार्थ सत् लक्षण वाला है। द्रव्य में बनता है । कर्तृकर्मभाव का निरूपण भी आचार्यों
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/15
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