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मोक्ष पदार्थ
आत्मा को समझो, उसके स्वभाव और विभाव की पहिचान को और विभाव के कारणों को समझ कर उन्हें दूर करने का पुरुषार्थ करो, मोक्ष अवश्य प्राप्त होगा ।
मोक्ष और तत्त्व सामान्यतया समानार्थक हैं तथा जीव तत्त्व का सारभूत पदार्थ मोक्ष है। मोक्ष शब्द का अर्थ छूटना है, अतः मोक्ष शब्द ही बद्धदशा का संकेत है। पहले बद्धदशा होगी तभी तो उससे छूटने रूप मुक्त दशा हो सकेगी। जीव की बद्धदशा अनादिकालीन है। इसका यह मतलब नहीं लगाना चाहिए कि वह कभी नष्ट नहीं होगी। भव्यजीव की बद्धदशा अनादि सान्त है । आगम में कहा भी है
'कश्चिज्जीवः कृत्स्न कर्मभिर्विप्रमुच्यते बन्ध हेत्वभावनिर्जरावत्त्वात्' अर्थात् कोई जीव समस्त कर्मों से - कर्म प्रदेशों से विप्रमुक्त होता है, क्योंकि वह बंध कारणों के अभाव और निर्जरा से युक्त होता है। तत्त्वार्थसूत्रकार ने भी मोक्ष का यही लक्षण कहा है. 'बंध हेत्वभाव निर्जराभ्यां कृत्स्न कर्म विप्रमोक्षो मोक्षः ’ बंध हेत्वभाव अर्थात् संवर और निर्जरा के द्वारा समस्त कर्मों का विशेषेण प्रकर्षेण च- विशेष और प्रकर्षता के साथ छूट जाना मोक्ष है। यह मोक्ष मोहक्षय पूर्वक
होता है। पहले मोह का क्षय होने से केवलज्ञान प्राप्त होता है और उसके बाद मोक्ष प्राप्त होता है। नाम के आदि अक्षर से संपूर्ण नाम को बोध प्राप्त होता है। अतः 'मो' से मोह और 'क्ष' से क्षय का बोध होता है। इस प्रकार मो. क्ष. शब्द ही मोहक्षय को सूचित करता है। मोह, बंध का कारण है तो उसका क्षय मोक्ष का कारण अवश्य होगा ।
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आचार्य श्री सन्मतिसागरजी
'मलादेर्वैकल्यं हिमण्यादेर्नैर्मल्यं' मल आदि का अभाव होना ही मणि आदि की निर्मलता है। इसी प्रकार भावकर्म और द्रव्यकर्म रूप मल का अभाव होना ही आत्मा की निर्मलता है। आत्मा की निर्मलता कहो या मोक्ष, एक ही बात है। पहले भाव मोक्ष होता है। पीछे द्रव्य मोक्ष। भावों की मलिनता ही इस जीव को परेशान करती है 'पर: ईशानोयस्य स परेशान:' इस व्युत्पत्ति के अनुसार परेशान का अर्थ परतंत्र होना है, लोक में परेशान का अर्थ कष्टदशापन्न होता है। आत्मा यद्यपि अनंत शक्ति संपन्न है तथापि मोहजनित मलिनता उसकी उस अनंत शक्ति को प्रकट नहीं होने देती। सब जानते हैं कि पानी अग्नि को बुझा देता है आग पर पानी पड़ा और अग्नि बुझी। परन्तु जब पानी और आग के बीच एक सूत मोटी तांबा, पीतल आदि की चद्दर होती है तब वह आग पानी को गर्म करके भाप बना-बनाकर समाप्त कर देती है। इसी प्रकार आत्मा और कर्म के बीच यदि मोहजन्य मलिनता रूपी चद्दर विद्यमान है तो कर्म आत्मा को अत्यंत दुखी कर देते हैं। जो आत्मा कर्मों को नष्ट करने का सामर्थ्य नहीं रखती है वह मोहजन्य मलिनता के सद्भाव में समयबद्ध प्रमाण कर्मों के द्वारा बद्ध हो जाती है।
धर्मेण गमनमूर्ध्वं गमनमधस्ताद्भवत्यधर्मेण । ज्ञानेन चापवर्गो विपर्यादिश्यते बंधः ॥
महावीर जयन्ती स्मारिका 2007-2/1
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