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-३२. १६.१३1
महाकवि पुष्पवन्त विरचित
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आणि मंदाणि तु सुपहि । णिग्गज फणि गैरलुपेच्छ्रणयणु । ओश्य वि णंदण वइवसेण । हाइजर दिब्ज काई सलिलु 1 "वर पंचमुट्ठि सिरि देमि लोउ । ण हु होइ कयाइ अणिट्ठजोड | जहि थक अप्पर णामेत्तु ।
श्रीमकुमार णिवेण बुत्तु । गुणवंतें परगेहिणिय जेम ।
अपणु लम्ड परीयकजि । राहि भावें मोक्खमग्गु |
दारिवि धरणीय दिढसुरहि
अभिवणि विलगड दंडरयणु आसेपि आसी विसेण ता चव सह गयदुरियकलिलु कि एणपणास सोड
कहि मिच्छमि सुहिदिओठ जहि सथलकाल अयरामैंरतु
सि
वसु इच्छिय तेण म ताथविवि भईरहि पुद्दइरजि दहधम्महु पायंति सभम्गु
घत्ता- - सहुं भीमें णिज्जियकामें चारितरेण विहसिउ ॥1 चक्केसरु हुए जोईसर मणिकेले वि सुरु तोसि ॥ १६ ॥
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तुम्हारे पुत्र घरतोको अपने दृढ़ बाहुओंसे खोदकर गंगा नदी ले आये। उनका दण्डरत्न नागभवन से जा टकराया। विषसे परिपूर्ण नेत्रवाला वह नाग निकला। उसने क्रुद्ध होकर यमके समान उन पुत्रोंको देखा। इसपर जिसका पाप कलंक घुल गया है ऐसा राजा सगर कहता है कि क्या स्नान किया जाये और पानी दिया जाये, क्या इससे इष्टजनका वियोग दूर हो जायेगा ? अच्छा है में पांच मुट्ठियोंमें सिरके बाल लेकर केशलोंच करता हूँ। जहाँ किसो सुघीका वियोग मैं नहीं देखता। और न कभी भी अनिष्ट योग होता है, जहाँ सदैव अजर और अमरत्व निवास करता है । जहाँ आत्मा ज्ञानमात्र रहता है, में उस शिवको सिद्ध करता हूँ। मैं चारित्र ग्रहण करता हूँ ।" तब राजाने कुमार भीमसे कहा कि यह घरतो तुम ले लो। परन्तु उस गुणवान्ने उसकी इच्छा नहीं की जैसे वह किसी दूसरेकी गृहिणी हो । तब भगीरथको पृथ्वीके राज्य में स्थापित कर राजा सगर स्वयं परलोकके काममें ठग गया। दृषर्मा मुनिके चरणोंके निकट उसने सम्पूर्ण भावसे समग्र मोक्षमार्गको आराधना की ।
१६. १. P गरल दुच्यणु । २. P रूपिणु आसी विसबिसेन । ३.AP ५. Pथरि । ६. AP सम्यकाल । ७AP अयरामरतु । ८. AP सामि । १०. AP मणिकेत वि संतोसित ।
घत्ता - कामको जीतनेवाले चारित्रसे विभूषित, और भोमके साथ वह चक्रेश्वर योगीश्वर हो गया। इससे मणिकेतु देव भी सन्तुष्ट हो गया ॥ १६ ॥
४. A बुट्ट्ठसोठ । ९. AP हमि ।