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-५८. ८.६]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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पुणु वसुवरिसणविहवें गयाई सत्तरई दोषिण वासरसयाई । गइ विमेलरिसीसरि दोहराई जझ्यहं गयाई पावसायराइं। जइयतुं अंतिमपल्लहु तिपाय गय णियणासियधम्मछाय । तइयहुँ भवभूरहसत्तहेइ
ताणत्तयधारि महाविवेद । जेट्ठहु मासह तमकसैणपक्खि बारहमइ दिणि णासियविवक्खि सापगड शिधसमिसासु सुरवरसंछणु णहंतरालु। दावियसुरकामिणिणहलीलु अर्बयरिवि अमरवइ पडिषि पीलु | परियचिवि त पुरवर विसालु जगणिहि करि देटिपणु कवडयालु । घसा-उत्तुंगहु रुम्ममयंगहु सूयरखद्धकसेरूहि ।
गउ सुंदरु वेउ पुरंदरु णाहु लएप्पिणु मेरुहि ||७||
भावालड णश्चंतहिं णडेहि स्त्रीरोयखीरधाराघडेहिं । अहिसिच भडारउ भावणेहिं वणेसुरवरेहिं जोइसगणेहि । वइमाणिएहि वीणाहरेहि गाय बंदिउ मरलियारेहिं । भूसिउ परिहाविउ असहु संतु णाणे अणंतु कोकिउ अणंतु । आणेपिणु पुणु पुरअरु पसण्णु देविद देविहि वेव दिण्णु । पणविवि सुरबइ गड णियविमाणु बढ्इ सिसु णं सिसुसेयभाणु ।
पुनः धनको वर्षाके वैभवसे नौ माह बीतनेपर, जब विमल ऋषीश्वरको (निर्वाण प्राप्त हुए) नो सागर समुद्र समय हो गया और जब अन्तिम पल्यके भी जिसमें निर्दया ( हिंसा ) के द्वारा धर्मको छाया नष्ट हो गयी है, ऐसे अन्तिम भागमें संसाररूपी वृक्षके लिए माग, तीन ज्ञानके पारी और महाविवेकशील त्रिभुवन श्रेष्ठ, ज्येष्ठ शुक्लाको निर्विन द्वादशीके दिन उत्पन्न हए । आकाशका अन्तराल सुरषरोंसे आम्छन्न हो गया । जिसने देवकामिनियोंकी नृत्य-लीलाका प्रदर्शन किया है, ऐसा इन्द्र ऐरावतपर चढ़कर और नीचे आकर उस विशाल पुरवरको प्रदक्षिणा कर, मायावी बालक माताको देकर
पत्ता-और स्वामीको लेकर, “जिसमें सुअरों द्वारा अलकंक ( कसेरू) खाया जाता है, ऐसे ऊँचे स्वर्णमय सुमेरु पर्वतपर गया ॥७॥
भावपूर्ण नृत्य करते हुए नटों और क्षीरोदकके क्षोरधारा-घटोंके द्वारा भवनवासी देवों, व्यन्तर देवों, ज्योतिषदेवों, वैमानिकदेवों और वीणा धारण करनेवालों ( किन्नरों ) ने हाथ जोड़े हुए अभिषेक किया, गाया और वन्दना की । शान्त अरहन्तको भूषित किया और वस्त्र पहनाये। हानसे अनन्त होनेके कारण उनका नाम अनन्त रखा गया। पुनः नगरमें आकर देवेन्द्रने ७. १. P विमलि रिसों । २. A भूमहछत्तहेछ । ३. A कसिणं । ४. AP अवयरिउ । ५. A वडवाहु ।
६. A भम्ममयंगः । ८.१. Pomits वर्ण ।