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-६१. १७. १०
माह की दुनिया तं णिसुणिवि सुरवर चित्तचूलु आयउ णिवघर गहलग्गचूलु । जिणजेद्वतणुमधु मणिउ तेण अण्णण्णु होइ तिहुवणु खणेण!
धत्ता-ण अस्थि तो वि दीसइ पयह जिह सिविणउ तेलोक्कु विह॥ ___ लइ सुष्णु जि णिच्छ उ आवडिउं कहि अच्छइ गय दीवसिंह ॥१६॥ १०
तं सुणिषि भणइ पविपहरणक्खु अण्णाणहं दुकरणाणचक्खु । जइ अबेर जि खणि खणि होइ सव्वु तो किं जाणइ जणु णिहिल व्छ । पज्जायारूढी सव्वसिहि
आउँचिन हत्थु जि होइ मुट्टि। अण्णयविरहिउं जि जगु भणंति खकुसुमे ते सससिंगे हणति । जइ सिविणु व तनु परोवहासि तो सिविणयभोयणि किं ण धासि । ५ जइ सुण्णतहु दीवधि जाइ तो खप्परि कजलु केमै थाइ तं सुणिवि पबुद्धत सुरु बउद्ध संसह तुहुँ गरवणाणसुद्ध । को करइ बप्प पई सहुँ विवाउ अरहंतु भडारड जासु ताउ । धत्ता-गउ चित्तचूलु सणिलणाहु इंदचंदफणिपरियरिउ ।।
खेमकर पढमहु तणुरुहहु अप्पिवि वसुमइ णीसरि ॥१७॥ ऐसे राजभवन में आया। उसने जिनके बड़े लड़के ( वज्रायुष ) से कहा कि त्रिभुवन एक पलमें कुछका कुछ हो जाता है।।
पत्ता-यपि वह नहीं है, तो भी वह प्रत्यक्ष रूपमें दिखाई देता है, जिस प्रकार स्वप्न { दिखाई देता है ) उसी प्रकार त्रिलोक । लो शून्यको शून्य ही निश्चय रूपसे ज्ञात हुबा, गयो दीप शिखा कहां रहती है ? ||१६||
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यह सुनकर वसायुध कहता है कि अज्ञानियोंके ज्ञानचक्षु कठिन होते हैं। यदि सब कुछ क्षण-क्षणमें कुछका कुछ हो जाता है तो लोग रखे हुए धनको किस प्रकार जान लेते हैं ? समस्त सृष्टि पर्यायोंपर आश्रित है। संकुचित्त हाथ मुट्ठी बन जाता है। जो विश्वको एक दूसरेसे ( द्रव्य पर्याय ) रहित कहते हैं वे आकाशके फूलको खरगोशके सींगसे मारते हैं। हे परोपहासी ( दूसरोंका उपहास करनेवाले ), यदि तत्त्व भी स्वप्नकी तरह है, तो तुम स्वप्न में किये गये भोजनसे तृप्त क्यों नहीं होते ? यदि दीपकी शिखा शून्यस्यको जाती है तो खप्परमें काजल कैसे पाड़ा जाता है ? यह सुनकर वह क्षणिकवादी बौसदेव प्रबुद्ध हो गया और प्रशंसा करने लगा कि हे देव, हे राजन्, तुम ज्ञानसे शुख हो। हे सुभट, तुम्हारे साथ विवाद कोन करे कि जिसके पिता आदरणीय बरहन्त हैं ?
पत्ता--चित्रचूल देव. अपने घर चला गया और इन्द्र, चन्द्र और नागोंसे घिरा हुआ क्षेमकर अपने पहले पुत्रको घरतो सौंपकर चला गया ॥१७॥
1. A नृपधक । ७. AP सुण्णज णिच्छत । १७. १. AP जह सणे खणे मन जि होइ । २. P खकुसुम । ३, AP कि ण थाई। ४. A सुरु पबुद्ध; P
सुफ बबुद्ध ।