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महापुराण
[११.१८१.
स
घर मेल्लिवि वणि थिउ मुकगतु रायाहिराउ णिवूढमाणु गोमिणिकामिणि अणुटुंजमाणु । बजाउहु अवइपणइ वसंति जलि रमइ सुदंसणसरबरंति । तडिदाढ़े घिरमववइरिएण दुकम्मभावसंचारिएण। खयरेण णायपासेण बधु विडलइ सिलाइ सह संणिरुद्ध । सा तेर णिहय दतकरयलेण गय सयपैलु णारि व रयमलेण । रिटणासिवि गह भयभीयजीउ णियधरि पट्ट कुलहरपईड। बसिकयसुरणरविबाहरासु णवणिहि चलदहरयणाई ता। घरु आय गविहरिवि भाशु पार गहयर एक पवण्णु सरणु । पत्ता-तहु अणु आगय असियरखयरि चवइहणमि को मई धरइ ।।
पहरणफल थविर अवरु अइड मिषहु सवझ्यरु बजरइ ।।१८।।
इह परिसि स्वगायलि अरिहमत्त तह देषि जसोहर वाउवे तेस्थु जि पुरु किंणरगीउ अस्थि तहु सुय सुकंत महुँ तणिय कंत
सबैमहपुरि पह इंदयत्तु । हर पुसु पुण्णसंपुण्णतेउ । सहि चित्तचूलु खगु जसगभस्थि । बहुतंतभंतबिहिबुद्धिवंत ।
मुक्त शरीर वह घर छोड़कर वनमें स्थित हो गया और समय बीतनेपर वह अरहन्त अवस्थाको प्राप्त हुआ। अपने मानका निर्वाह करनेवाला राजाधिराज परती और लक्ष्मीको भोगता हमा वधायुष वसन्त ऋतु आनेपर सुदर्शन नामक सरोवरमें जलमें कोड़ा कर रहा था। पूर्वजन्मके शत्रु और दुष्कर्मभावसे संचारित विशुदंष्ट्र विद्याधरने उसे नागपाशसे बांधा और विशाल चट्टानसे उसे अवक्त कर दिया । उस चट्टानको उसने अपने दृढ़ करतलसे आहत किया, वह उसी प्रकार सौ टुकड़े हो गयो जैसे रजस्वला स्त्री रक्तमलसे लाजके कारण टुकड़े-टुकड़े हो जाती है। भयसे भीत जोव शत्रु नष्ट होकर चला गया। वह कुलगृहका दीपक अपने घर आया । जिसने मनुष्यों और देवोंको विद्याओंको अपने वश में कर लिया है, ऐसे उसके घर नौ निधियों और चौदह रत्न माये । एक विद्याधर मरणके भयसे उसके घर शरण आया ।
वत्ता-उसके पीछे हाथमें तलवार लिये हुए एक विद्याधरी आयी और बोली कि मैं मारूंगी, कोन मुझे पकड़ सकता है ? एक और बूढा विद्याधर हाथमें पिधार लेकर आया और राजासे अपना वृत्तान्त कहने लगा !|१८||
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इस भारतवर्ष में विजया पर्वतके शुकप्रभ नगरमें अर्हद्भक्त राजा इन्द्रदत्त है। उसकी देवी यशोधरा है। उसका मैं पुण्यसे सम्पूर्ण तेजवाला वायुवेग नामका पुत्र हूँ। उसी देशमें किन्नरगीत नगर है। उसमें यशको किरणोंवाला विद्याधर राजा चित्रचूल है। उसकी कन्या १८. १. AP सहसा गिराक्ष । २. A सयदण । ३. AP पियपुरि | Y. AP मई को । १२. 1. A अरुह ।