Book Title: Mahapurana Part 3
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

View full book text
Previous | Next

Page 466
________________ -६५. ६.११] महाकवि पुष्पदन्त विरचित सारयन्मु पविलीणु णियच्छिवि लच्छिविहोत असेसु दुगुंछिवि । जीविउ देहु असारु पियपिवि अरविंदेहु महिरनु समाप्पिवि घता-खीरवारिपरिपुण्णहिं दारहारसियहिं ॥ पहाइवि मंगलकलसहिं सुरपल्हस्थियहिं ॥५॥ णिमणिवि सारस्सयसंबोहणु वइजयंतसिबियहि आरोहणु। करिवि सहेउयवणु तं जेत्तहि उ तुरिएण महापह सत्ता। मियसिरजुतमासि वहमइ दिणि चदिणि रेवइरिक्ति सुसोहणि । अवरोहर छटेणुववासे णिर्खतउ सहुँ रायसहासे । लुचिवि कुंतल णिम्मोहाल लिंगु असंगु लेवि गिलहं। मणपज्जयधरु सुद्धिणिरिक्खहि बोयह दियहि पदुड भिक्खहि । चक्षणयरि अवराइयणर। पारावित अमरासुरसुरखें। तहु धरि पंच षि चोजई घडियई कुसुमई रयणई गयण पडियई । सवतायें णियतणु तावतउ सोलहवरिसई महि विहरतस । धत्ता-दिखावणु आवेप्पिणु कत्तियमासि 'पुणु ॥ सियबारहमद वासरि सुरषरणवियगुणु ॥ ६ ॥ दोनोंको प्रसन्न कर शरदके मेधको लीन होते देखकर, अशेष लक्ष्मी-विभोगको निन्दा कर जीवन और देहको असार समझकर, अरविन्द (पुत्र) को महाराज्य देकर। पत्ता-क्षीर समुदके जलोंसे परिपूर्ण, तार और हारके समान स्वच्छ मंगलकलशोंसे, देवपंक्तियों द्वारा स्नान कराकर ||५|| लोकान्तिक देवोंका सम्बोधन सुनकर, वैजयन्त शिविकापर आरोहणकर, जहाँ वह सहेतुकबन था, वहाँ महाप्रभु तुरन्त गये। मार्गशीर्षके शुक्ल पक्षकी बसमीके दिन, सुशोभन रेवती नक्षत्रमें अपराह्नमें वह छठा उपवास कर एक हजार राजाओंके साथ दीक्षित हो गये। केशलोंच कर निर्मोहसे युक्त असंग चिह्न और दिगम्बरत्व लेकर, वह जिसमें शुद्धिका निरीक्षण है, ऐसी भिक्षाके लिए दूसरे दिन प्रविष्ट हुए। चक्रनगरमें अमरों और असुरोंके समान सुन्दर स्वरवाले राजा अपराजितने उन्हें बाहार दिया। उसके घर में पांच आश्चर्य प्रगट हुए । पुष्पों और रत्नोंकी बाकाशसे वर्षा हुई। तपके तापसे अपने शरीरको तपाते हुए तथा सोलह वर्ष तक परतीपर विहार करते हुए। पत्ता-दीक्षावन ( सहेतुकवन ) में बाकर, सुरक्रोंसे जिनके गुण प्रणम्य है, ऐसे यह कार्तिक शुक्ला द्वादशीके दिन ।।६।। ६. १. A सारयस्स । २. AP तावंतह । ३. AP विहरंतह ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 464 465 466 467 468 469 470 471 472 473 474 475 476 477 478 479 480 481 482 483 484 485 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522