________________
महाकवि पुपान्त विचित
१६ जं दिणयरबिंबु व विष्फुरिष पढिवखें चक्कु मुक्कु सुरिउ । सुइडत्तदीच णं संचरिउ
तं दत्तएण हत्थे धरिउ । हर बरि सेण मारिउ तुमुलि गत णिवडिड सत्तमधरणियलि। इह एव पर थिर गपि जहिं महि मुंजिवि कण्ड वि गर्यट तर्हि । तहि अवसरि सोलु परिग्गहिस हलिणा हिय उल्लर णिम्गदिदं । संभूय जिणेसैरु सेवियर तवतायें अप्पर तावियउ। सहियई बावीसपरीसहई महियई चउकम्मई दुम्महई । अणयार महाकेवलिपवरु जायउ कालेण अजर अमरु । ससहा तिहुवणसिहरु णि बीयउ परमेट्टि हवेवि ठिठ । सो बुधु सिधु णिद्ध्यरस धुवकेवलदसणणाणमत । मयरद्धय चावसमुह लिय णिसिम् संछिदउ आवलियं ।
पत्ता-भरहणमंसिउ मई देहाणियं ॥
सुफुसुमयंतच कुसुमसराणियं ॥१६॥ शव महापुराणे तिसट्रिमहापुरिसपार्ककार महाकापुप्फर्यसविरहए महामम्वमहामग्गिए
महासम्वे मालिणाइपरमपरिणदिमिरादत्तययमिपुराणं णाम
परासटिमो परिच्छेको समत्तो ॥१०॥
१६
जो दिनकरके बिम्बके समान चमक रहा है ऐसे उस चक्रको तुरन्त चलाया गया मानो सुभटस्वका द्वीप ही संचरित कर दिया गया हो । दत्तने उसे अपने हाथ में ले लिया। वेरी नष्ट हो गया। उसके द्वारा मारा गया वह भयंकर सातवें नरक में गया । इस प्रकार यह जहाँ जाकर स्थित रहा धरतीका भोग कर नारायण भी वहीं गया । उस अवसरपर बलभद्रने शील ग्रहण कर किया और अपने हृदयका निग्रह किया। उसने सम्भूत जिनेश्वरकी सेवा की और तपके तापसे स्वर्यको सन्तप्त किया । उसने बाईस परिवहोंको सहन किया । दुर्मद चार पातिया कोका नाश कर दिया। अनभार महाकेवली प्रवर समयके साथ अजर-अमर हो गये। अपने स्वभावसे वह त्रिभुवनके शिखरपर विराजगये और दूसरे परमेष्ठी (सिद्ध) होकर स्थित हो गये। पापको नष्ट करनेवाले वह बुद्ध सिय शाश्वतरूपसे केवळदर्शन ज्ञानमय हो गये । कामदेवके घनुषसे उल्लसित
पत्ता-कुसुमबाणमयी मेरे शरीरमें लगी हुई पैनी तोरपंक्तिको हे कुन्दकुसुमके समान कान्तिवाले भरतके द्वारा नमनीय मल्लिनाथ काट दो ।।१६।। वेसठ महापुरुषों के गुणाकारोंसे युक्त महापुराण में महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित एवं महाभय मरतारा मनुमत महाकाग्य में मल्सिनाथ,पस पवर्ती नदीमित्र
दत्तबकि पुराण मामका सबसौ परिच्छेद समास दुमा 400 १६... A परिसके । २. AP वेग वहरि । ३. A इह एम पि पित एह अहि। ४. A आम नहि; P
म तहिं । ५. AF भावें । ६. A दुम्मयई । ७. APउ । ८. A णिसि पासिंच सिदित श्रावरियं । २. A महुँ । १०. A मरिरुगाहगिम्यागयमणं णाम ससक्तिमो ।