________________
४५९
महाकवि पुष्पदन्त विरचित
णियजणणीसस णविवि णियच्छिय माउच्छिय कयवीरें पुच्छिय ! अम्मि अम्मि भोयणु भल्लार जहि चक्खिजइ तहिं रससार। एहउँ नृवह मि ण संपजइ |
तुम्हह तावसाहं किह जुल्मइ । अक्खि उ रेणुयाइ विहसे पिणु
गड बंधवु सुरघेणुय देप्पिणु। ताइ वुत्तु अम्हहं चिंतिउ फलु णं तो पुणु वणि भुजहुं दुमंहलु । जं अंबाइ एम आहासिउं
तणएं तं पियपिउहि पयासि । रयणई होति महीयलवाल ण न तसिहिपसरियजडजालहं। तासु वि ताद जि चि त कनी कर मलिवि चुत्तउं । चउरासमगुरु रयणिहि अंचहि दिवगाइ दिय देहि म चहि । घत्ता--गाइ ण देमि म पत्थहिं अरितरुणियरसिहि ।।
विगु गाइड अम्हारइ ण सरइ होमविहि ॥१८॥
तोतं सुणिवि तेण महिणाहें शत्ति अमरवरसुरहि महड्डिय मुयहिं धरह जमय ग्गि ण संकह
गोहणलुद्धे णं वणवाहे। कंचणदामइ धरिवि णियड्डिय । रेणुय कलयलु करहुं ण थकाइ ।
१८ अपनी माको बहनको प्रणाम कर कृतवीरने उसे देखा। मौसोसे उसने पूछा, "हे मा, हे मां, भोजन बहुत अच्छा है, जहाँसे भी चखो, वहींसे रसमय है। ऐसा भोजन तो राजाओंके लिए भी सम्भव नहीं है। तुम तपस्थियोंके लिए यह कैसे प्राप्त होता है ?" तब रेणुका हंसकर बोली, "मेरा भाई सुरधेनु देकर गया है, हे पुत्र, उसके द्वारा हमारे लिए चिन्तित फल मिलते हैं, नहीं तो वनमें हम वृक्षोंके फल खाते हैं।" जब मौसीने इस प्रकार कहा तो पुत्रने यह अपने पिताके लिए बताया कि रत्न धरतीका पालन करनेवालोंके होते हैं न कि तपस्याको आगसे जटाजाल बढ़ानेवालोंके । उसका ( सहस्रबाहुका) चित्त भो उसमें आसक्त हो गया । कृतवीरने उससे हाय जोड़कर कहा, "चारों आश्रमोंके गुरु ( राजा ) की तुम रत्नोंसे अर्चा करो। हे द्विज, तुम दिव्य गाय दो, धोखा मत दो।"
पत्ता-(द्विजने कहा )-शत्रुरूपी वृक्षों के समूह के लिए आगके समान हे ( कृतबीर ), में राजाके लिए गाय नहीं दूंगा । गायके बिना हमारो यज्ञविधि पूरी नहीं होगी ॥१८॥
तब गोधनके लोभी उस राजाने मानो भोलके समान महा-ऋद्धि सम्पन्न वह सुरधेनु स्वर्णको श्रृंखलासे पकड़कर खींच ली। जमदग्नि बाहुओंसे उसे पकड़ता है, शंका नहीं करता, १८. १. AP णिवह । २. Pण वि । ३. AP दुमफल । ४. गियपियहि । ५. A तवसियपसरिय । १९. १. P ता ते सुणिधि । २. AP महिदित्य ।