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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
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गय सम्ग पुणु देयधरि दाहिणसे विहि वसुमालपुरि । विजाहरु इदके वसइ
पिय मयणवेय तह अस्थि साइ। सुप्पह उप्पण्णी ताई सुय
ओहमछाइ बालमुणालमुय । एयइ पिययमु ओलग्गियर भत्तारभिक्ख हई मग्गियज । णिसेंणिवि वि संसरि विलि सुट थविवि सुवण्णतिलड सउलि। घणरहजिणकमेकमल महिउँ सोहरहें मुणिचरित्तु गैहि । पियमित्तयर्गणणीकहिल संजमु जमु अवलंबिवि सहित । थिय मयणवेयविरईइ किह कइमइ दुबरकहरीण जिद्द । दलालइ लोपहुं गायब तहिं रज करइ सो मेहरहु । घसा-गंदीसरि संपत्ता जिणु शायंतु सचित्तइ ।।
दसणु णाणु समिच्छइ उबवासिर जो वच्छइ ॥१४॥
भवभावपवेवियसव्वतणु ताचेकु कवोल पराइयड किर शचि जैडप्पिवि लेइ खलु
चलेमरणुतासिउ सरणमणु। तह पच्छा गिद्ध पराश्यड | णियवपरिहि लुंचिवि खाइ पलु ।
स्वर्ग गयो। फिर विजया पर्वतको दक्षिण घेणोके वसुमालपुरमें इन्द्र केतु विद्याधर निवास करता है। उसकी पत्नी मदनवेगा सती है। वह उन दोनोंको सुप्रभा कन्या उत्पन्न हुई। बाझमृणालके समान बाहवाली वह, यह स्थित है। इसने अपने पतिकी सेवा की है, और मुझसे पतिकी भीख मांगी है। विपुल संसारमें परिभ्रमणको सुनकर अपने पुत्र स्वर्णतिलकको गद्दीपर स्थापित कर बनरष जिनवरके चरणकमलोंकी पूजा कर सिंहरथने मुनि दीक्षा स्वीकार ली। प्रियमित्रा आर्यिकाके द्वारा कहे गये संयम और यम तथा स्वहितका बवलम्बन कर विरतिसे मदनदेगा उसी प्रकार स्थित हो गयो जिस प्रकार कविको मति दुष्कर कथासे शान्त हो जाती है। वहाँ मेघरथ लोगोंको न्यायपय दिखाता है और इस प्रकार राज्य करता है।
पत्ता-नन्दीश्वरपर्वत प्राप्त होनेपर जिनका अपने मनमें ध्यान करते हुए जबतक वह उपवास करता है और दर्शनज्ञानकी इच्छा करता है ॥१४॥
कि इतनेमें जिसका जन्मके भावसे सारा शरीर प्रकम्पित है, जो चंचल मरणसे पीड़ित है, बोर जिसका मन शरणके लिए है, ऐसा एक कबूतर वहाँ आया। उसके पीछे एक गीध आया।
१४. १. A पेयडवरि । २. A तासु । ३. P has i before शिंसुणिवि । ४. A मक संसरियर; P मधि
संधरियां । ५. AP कमजुयलई। ६. P महिय । ७. P गहिथ । ८. A गणिणों । ९. A सह
सह। १०.AMा ; Pामच्छइ । १५. १. AP चलु । २. AP सेणु। ३. A सडेप्पिणु ।
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