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जिंदु सिरिसेणु पुणु बिजो सुरवर घणसंदणु
दरिसर भज्नु सलु सयलायक देवि अलिंद कुणा अमयास अतीरिक्ष हरि मेहणा पहिरि सहसाउछु
णु सत्थसिद्धि परमेसन
संति अंति विहुणेवि महारी
महापुराण
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देव स्वयरु सुरु हलि पवरामरु | सत्याहि अइरहि गंदणु । होच पसंतहु लहु लग्गणतरु । सुन सिरिति णारच जोश्यवइवरणीसरि ।
महीयलराणउ |
कुरुणरु
कपणाहू दढरहु पलिय मुहु । सुदेव रिसीसर |
कर कसायसंति गरुयारी ।
घत्ता- - भरसर जियसह मुणिपवरु जहिं गढ जिण तुहुं तेतद्दि ॥ मई पावहि सिद्धालयमहि पुष्फेयंतरुइ जेतहि ॥ ११ ॥
[ ६३.११.१
इव महापुराणे विसद्विमहारिसगुणालंकारे महाकपुष्कर्यंत विनश्ए महामन्यमरहाणुमणिए महाकवे संतिणाइ निम्बाजयमणं णाम सिट्टिमो परिच्छे समतो ॥६३॥
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११
कुरुमानव जो राजा श्रीषेण थे, वह देव ( भोगभूमिमें ) विद्याधर, देव फिर प्रवर अमर, वज्रायुष, इन्द्र, मेघरथ, फिर सर्वार्थसिद्धिमें अहमेन्द्र और फिर ऐराके पुत्र ( शान्तिनाथ ) हुए । वह मुझे समस्त सकलाचार दिखायें और गिरते हुए मुझे आधारस्तम्भ हों, और जो अनिन्दिता देवी कुरुकी नर हुई थी, फिर श्रीविजयदेव, फिर महीतलका राजा, अमृताशय अनन्तवीर्य, नारायण, वैतरणी नदीको देखनेवाला नारको, मेघनाद प्रतिनारायण, फिर सहस्रायुध, कल्पदेव, प्रहसितमुख दृढरथ, फिर सर्वार्थसिद्धिका देव और तब परमेश्वर चक्रायुध ऋषीश्वर देव सुख दें। हमारी विद्यमान भ्रान्तिको नष्ट कर वे मेरी भारी कपाशान्ति करें ।
पत्ता - है जिन, कामको जीतनेवाला मुनिप्रवर भरतेश्वर जहाँ गया, और जहाँ आप गये हैं, और जहाँ चन्द्र और सूर्यके समान दीति है, वह सिद्धालयभूमि मुझे प्राप्त करा दो ॥ ११ ॥
इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा विरचित पूर्व महामध्य मस्त द्वारा अनुमत महाकाव्य में शान्तिनाथ निर्वाण मन नामका प्रेसठवाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ६३ ॥
११.१. नृउ २. विजा ३. P कुरुतणुमान । ४. AP सिरिविज्ञ महिय । ५. AP
पुप्फदं ।