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[१२.२०.५कि खेयरीउ कि अच्छरउ
तुइ सणमण मच्छर । तं हाइवि जणगणसाहणउं लह लक्ष्यउं ताइ पसाहणउं । सुरणारिउ पुणु पइसारियउ माणवजणदूरोसारियउ। अवलोइवि झीणु रूषिहवु देवहिं पवुत्तु ण किं पि धुवुन तेरउ सरूउ रूवह ढलि पुब्बिालहि रेहहि परिगलिन । घत्ता-ता र सुहि णितिवण्णी सा पियमित्त विसणी ।।
उम्मण दुम्मण थक्षी माणमरहें मुझी ॥२०॥
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तं पेक्खिवि गढ मणहरवणहु राण पणषिवि घणरजिणटु । चउपन्वपयारि अणासयह आउच्छह वित्ति उपासयहं ।। साययअज्झयगु ण तं रहा सचम अंगु रिसिबइ कहा। धिविहान घरधम्मपवित्तियत किरियाउ असेसल पत्तियः । दढरक्षिगा रज्ज समिच्छियर णीसार दुरंग दुगुंछियउ । सुख मेहसेणु पच्छइ थविवि मेहरहिं जिणवरु विष्णविधि । सहुँ भाइ सहसा लइल तर बारहविहु सोसिउ विसमभेउ । धीरहिं णिदियइदिय सिवाद भयसमसहसाहिं सह पत्थिवाई। घता-सिरिपुरि घरि सिरिसेणाहू मुंजिवि दिपणसुदाणा ॥
अंतयपुरि गिषणंदङ थाइवि अमराणंदहु ॥२२॥ ईयांसे रहित वे तुम्हें देखनेका मन रखती हैं ? तब उसने स्नान कर तथा जनमनको आकर्षित करनेवाला प्रसाधन कर लिया। फिर मनुष्यजनको दूरसे हटानेवाली देवस्त्रियोंको भीतर प्रवेश . दिया गया। उसके रूपवैभववाले शरीरको देखकर देवियोंने कहा कि ( संसारमें) स्थिर कुछ भी नहीं है । तुम्हारा स्वरूप रूपसे ढल गया है, पूर्वको शोभासे गल गया है।
___ घत्ता-रतिसुखसे विरक्त विषण्ण, उन्मन और दुर्मन यह प्रियमित्रा मानके अहंकारसे मुक्त होकर श्रान्त हो गयी ॥२०||
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उसे इस प्रकार देखकर राजा मनहर बन गया और धनरथ जिनको प्रणाम कर उसने कर्मानवसे रहित उपासकों (श्रावकों) को वृत्ति पूछो। ऋषीश्वर सातवें अंग उपासकाध्ययनका कथन करते हैं, वह उसे छोड़ते नहीं। गृहस्य धर्मको विविध-प्रवृत्तियों, मशेष क्रियाओं और उक्तियों का उन्होंने कथन किया । दृढ़रथने राज्यकी इच्छा नहीं की। असार और दुरंगो चालवाले उसकी निन्दा की। बोदमें अपने पुत्रको राज्य में स्थापित कर मेषरथ जिनसे निवेदन कर अपने भाई के साथ इन्द्रिय सुखको निन्दा करनेवाले सात सौ राजाओंके साथ उसने बारह प्रकारका तप ले लिया, और संसारके भयको नष्ट कर दिया।
पत्ता-प्रोपुरमें सुदानको देनेवाले श्रीषेण राजाके घर पाहार कर और देवोंको आनन्द देनेवाले नन्दन राजाके प्रासादमें ठहरकर ।।२१॥
४. A समच्छरत । ५. A "गुणिविणो । २१.१. A हर । २. A विष्णिविवि: P वेषण विधि । ३. A विसमत। ४. A णिवदाणहै।