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परिपुरि अवराइयहु गेहि श्रेणि वि थणभारें भग्गियाउ पहि मंदि आणवहि तुरि अवलोय मंतिमंत संत गय ते विपुरिहि पायरोहि छ तेहि ताई डवट ठु कजु सोणिय डिजुयलउं देहू ताम ता पोसह नियमाल किएण
महापुराण
सं णिणिवि मंति भांति एमा णादाणेण वे होइ मलिणु थिष चिंताहरु णरणाहु जाम सव्वच पण्णतिपहूइयाउ
धन्तः - जिणभवेणथिएण णराहि त्रेण अवराइएण समंतियणु । आछि दिउ तियर्जुयलु कि किन सह तेण रणु ॥५॥
[ ६१.५.४
णं विज्जुलियर अच्छंति मेहि । लक्षणरवइ तुझु जि जोग्गियोउ । रायण वितं नियचिति धरितं । संपेसिय बुद्धिवंत | तणय वसुंधरीहि ।
सहसा
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ज इच्छ संपय विलु रज्जु । दमियारिदेउ रूस पण जाम । जिणपायपोसेवापिषण |
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खयराहि दुज्जउ समरि देव । विसुणिवि मरेलियणयणवयणु । चिरंभ विजय पत्ताच ताम | teag was
सुन्दर नर्तकी बालाएं प्रभाकरी नगरीके राजा अपराजितके घरमें इस प्रकार हैं, मानो मेघोंमें बिजलियाँ हों। ये दोनों ही स्तनभारसे भग्न हैं। हे राजा, तुम ले लो, वे दोनों तुम्हारे योग्य हैं। मन्त्री भेज दो, वह शीघ्र ले आये ।" राजाने भी यह बात अपने मनमें ठान लि । उसने अपने विद्वान् मन्त्रणा में महात् मन्त्रियोंकी ओर देखा और बुद्धिमान् मन्त्रियोंको भेजा। वे भी उस प्रभाकरी नगरीके लिये गये, जो वसुन्धरा ( धरती ) के लिए प्रिय थी। शीघ्र ही उन्होंने उससे अपना काम कहा कि यदि तुम सम्पत्ति से विपुल राज्य चाहते हो तो अपनी दोनों नर्तकियों दो, कि जिससे हे देव, राजा दमितारि माराज न हो। तब प्रोषषोपवासके नियमसे अलंकृत तथा जिसे farach चरणकमलोंकी सेवा प्रिय है ऐसे एस---
घता - जिनमन्दिर में स्थित राजा अपराजितने अपने मन्त्रीगण से पूछा - "उसे नर्तकीयुगल दे दिया जाये या युद्ध किया जाये ?" ||५||
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यह सुनकर मन्त्रियोंने इस प्रकार कहा - "हे देव, विद्याधर राजा युद्धमें दुर्जेय है, लेकिन नादान से भी कलंक लगेगा ?" यह सुनकर अपना मुख और आँखें बन्द करके राजा जब चिन्तासे व्याकुल बैठा था, तब उसे पूर्व भवकी अर्जित विद्याएँ प्राप्त हुई । प्रज्ञप्ति प्रभृति सभी
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५. १. AP जोगियाउ । २. AP आलोय | ३. A मंतमहंत ४ A जे प्रियसुय वहवसुंधरीहि; P जे पिवसहि वसुंधरीहि । ५. AP भचण थिएन । ६. Pतियजमलु ।
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६. १. APवि । २. AP मठलियवयणणलिणु । ३ AP विभव । ४, AP add after this: जंपति
णवंत सदस्याउ, चिरु सामिहि दासलणु गदाउ को पहण को आग घरेबि ।