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संधि ६१
सो असणिघोसु आसुरियाबार दाव सुतार सयंप६ वि ॥ पैवइयई णिसुणिवि जिणवयणु जिणु पणवेप्पिणु तिजगरवि ॥ध्रुवक।
सिरिविजयक मारुयवेएं वउ उज्जालित घरू बेणि वि अण सुरकरिकरमुउ णिरु णिरवजउ उत्तमसची णयलगामिणि जलसिहिथभैणि अंधीकरणी विस्सपवेसिणि अप्पडिगामिणि पास विमोयणि बलणिक्खेवणि
णिगयसंक। अपमियतेएं। पोसह पालिस। गय ते सज्जण । रविफित्तीसुल। साह विज। चलपण्णत्ती। इच्छियरूविणि। घंधणि रंभणि | पहरावरणी। अवि आवेसिणि। विविहपलाविणि । गहणीरोयणि । चंडपहायणि ।
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सन्धि ६१ वह अशनिघोष, आसुरीदेवी, सुतार और स्वयंप्रभा भी त्रिजग सूर्य जिनवरको प्रणाम कर और जिनवयनोंको सुनकर प्रवजित हो गये।
शंकाओंसे दूर, वायुके समान वेग और अपरिमित तेजवाले श्रीविजयने व्रतका उद्यापन क्रिया, प्रोषधोपवासका पालन किया। वे दोनों ( श्रोविजय और अमिततेज) ही सज्जन घर गये। ऐरावतको सूंडके समान हाथोंवाला, अर्ककीर्तिका पुत्र अमिततेज अत्यन्त निरवद्य विद्याएं सिद्ध करता है। उत्तम शक्ति, चलप्रज्ञप्ति, आकाशगामिनी, कामरूपिणी, जलस्तम्भिनो, अग्निस्तम्भिनी, बन्धिनो, हमनी, अन्धीकरिणी, प्रहारावरणी, विश्वप्रवेशिनी और आवेशिनी, अप्रतिगामिनी, विविधालापिनो, पाशविमोचिनी, ग्रहनिरोधिनी, बलनिक्षेपिणी, चण्डप्रभाविनी,
१. १. AP पावश्यई । २. P णिसुणवि । ३. AP'भिणि । ४. AP°णिणि । ५. A पहराघरणी ।
६. K recordsap चल इति पाठे चपला । ७. AP'पहाविणि ।
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