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महाकवि पुष्पदन्त विरचित
'चलतडयडियपडियसोयामणिता हैणविहडियाबलं । वहियं पावसम्म वणतरुतलि विसरिसजलझलझलं ||५|| महिरविडकयविलबिलयलसिलायल टिहियाणं । सूरस्स हिम्मुद्देण सूरेण वरेण विमुकराइ ||६|| सो गंभारवि किरणकला वर्खर वियंभियं । दुद्दको मोहदढलोहमयं पियलं णिसुंभिर्य ||७|| सहसा विसयलसय रायर केवल निमललोयणो । देउ कुमार जइ सुहमइ जोयउ सो णिरंजणो ||८|| पत्ता - महलिङ "मुक्खाको ! भराइदिहं चरिउं अणिदहं पुष्यंतु जइ घोसइ ॥ १९ ॥
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इय महापुराणे विलद्विमहापुरिल गुणालंकारे महापुष्यंसविर महामन्यमरहाणुमणिए महाकब्बे धम्मपरमेहिणपुरिस सोहमहुकीकथमवत्र सणककुमारकइंतरं णाम एककुणस हिमो परिच्छे समतो ॥५९॥
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इस प्रकार प्रेसठ महापुरुषोंके गुणालंकारोंसे युक्त, महापुराणमें महाकवि पुष्पदन्त द्वारा रचित एवं महामन्य मरत द्वारा अनुमत महाकाव्य में धर्मनाथ परमेष्ठी सुदर्शन पुरुषसिंह मधुश्री, मघवा और सनरकुमार ध्यान्तर नामका उनसठयाँ परिच्छेद समाप्त हुआ ॥ ५९ ॥
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समान देवाले वह घर और वस्त्रका मोह छोड़कर बाहर निवास करने लगे । पावस ऋतु में वह वनवृक्ष के नीचे, चंचल तड़-तड़ कर गिरती हुई बिजलीसे जिसका माल विघटित है, ऐसी असामान्य जलधाराको सहन करते हैं। जिसने महीधरोंके विकट कदकोंके समान विपुलसे बिलतर शिलातलपर अपना शरीर रखा है, ऐसे रागसे मुक्त उस श्रेष्ठ वीरने सूर्यके सम्मुख होकर, ग्रीष्मकालकी रविकिरण-समूहके प्रखर विस्तारको सहकर, दुर्दम क्रोध मोह और दृढ़ लोभमय शृंखलाको नष्ट कर दिया। जिससे सकल सचराचर देख लिया जाता है ऐसे केवलज्ञानरूपी नेत्रवाला शुभमति यह सनत्कुमार निरंजन देव हो गया ।
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धता - मूर्खता और कवि की धृष्टता से मलिन कविका पोषण क्यों किया जाता है कि regorea कवि अनिन्द्य भरत आदिका चरित घोषित करता है || १२ ||
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८. A खरं वियंभियं । ९. AP जाओ। १०. AP मुखसें ।
विणण-विडिया | ६. AP°वियल" | ७. A सूर शिहिपुण; P सूरराहिमुद्देण ।