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महाकवि पुष्पदन्त विरचित अभियतेउ णियरजि थवेप्पिणु भत्तिइ तउ तिब्वयरु तवेप्पिणु । अचकित्ति जइवह गउ मोक्खह मुक्का भवसंसरणहु दुक्खहु। विजयभद्दु सिरिविजयह मच्छो जिवित अमियतेट णिरु णेइलु । पाहुबगमणागमणपवाई
जाइ कालु बंधुहं उच्छाहें।। घत्ता-जा तावेक्कु सुसोतिर तहिं आयउ णिम्मित्तिये ॥
सत्तमि दिणि जे होसह तं सिरिविजय घोसाइ ।।४।।
अरिपुरवरणिवसावयवाहहु । तडि णिव उसइ पोयणणाहहु । तडयउंति सिरि द्रत्ति भयंकर सहसा दहविहपाणखयंकरि । विजयभद्दु पभणइ रे बभण णिय सज्जणहिययणिसुंभण । जइ राय सिरि विज्जु पडेसइ तो तुहुँ सिरि भणु किं णिवडेसइ । सं आयण्णिवि तणुविच्छायहु दियवरु आहासइ जुबराया। पत्थिव महु मत्थइ मलमुबई णिवडिहिंति णाणामाणिकई । मरणषयणवाएं विहाण
तहि अवसरि सई पुफछह राणउ ! को तुहूं कासु पासि कहि सिक्खिउ केमे भविस्सु बप्प पई लक्खिउ । अक्खइ सुत्तकंछ पुह ईसहु
इ.उं पटवश्यउ समहलीसहु। गउ विहरंतु देसि पुरु कुंडलु ६ महिणारिहि परिहिट कुंडलु । कलत्रको तुणके समान समझकर, अमिततेजको अपने राज्य में स्थापित कर, भकिसे तीव्रतम तप सपकर यतिपति अर्ककीर्ति मोक्ष गया और इस प्रकार संसारके दुःखसे दूर हो गया । जिस प्रकार श्रीविजयका प्रिय विजयभद्र, उसी प्रकार और स्नेही अमिततेज, उपहारोंके आने-जानेके प्रवाह और उत्साहसे दोनों बन्धुओंका जब समय बीतने लगा
पत्ता--तब एक ज्योतिषी ब्राह्मण वहाँ आया, और सात दिन बाद जो होनेवाला था, वह उसने श्रीविजयको बताया ||४||
"शत्रुनगरके राजारूपी श्वापदके लिए व्याषा पोदनपुरनरेशके सिरपर तड़तड़ करती हुई शीघ्र और अचानक दसों प्राणोंका अन्त करनेवाली भयंकर बिजली गिरेगी।" इसपर विजयभद्र कहता है-“हे निर्दय, सज्जनोंके हुदयको चूर-चूर करनेवाले ब्राह्मण, यदि राजाके सिरपर पांच गिरेगा, तो तू बता तेरे सिरपर क्या गिरेगा?" यह सुनकर द्विजवर शरीरसे कान्तिहीन युवराजसे कहता है-'हे राजन, मेरे सिरपर मलसे रहित नाना मणि गिरेंगे।' उस अवमरपर मरण शब्दको हवासे शुक राजा स्वयं पूछता है-"तुम कौन हो, किसके पास तुमने कहा यह सीखा है? हे सुभट, तुमने किस प्रकार भविष्य देख लिया ?" ब्राह्मण राजासे कहता है कि "बलभद्रके साय में प्रवजित हुआ था। देशमें विहार करते हुए मैं कुण्डलपुर पहुंचा, जो ऐसा लगता था
६.AP मित्तिः । ५. १. A सिरि दुत्ति; P सिरि दत्ति। २. प्राण । ३. APायह। ४. AP किर। ५. P केम
इह भविस्सु ।