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-६०. २४. ११] महाकवि पुष्पदन्त विरक्षित
लोहे जणु चामीयरु संचइ लोहें अप्पणु अप्पलं वंथइ । खाइ ण देइ धिवइ धणु खोणिहि लुद्धठ णिवडइ दुग्गयजोणिहि । घत्ता-एयह पउहं कसायहं दावियणरयणिवायहं ।।
जो अप्पाणउं रक्खई मोक्खसोक्खु सो चस्वइ ।।२३॥
मिच्छत जणवउ छाइज मिच्छा विडगुरुपय पुज्जइ भयणमत्तमहिलामसेवहं मिच्छतेण जीउ मोहिजइ मिच्छत्तेण असंजमु बढइ पोसइ पंचिंदियई दुरासई परहणपरकलत्तअणुबंधे तहिं अवसरि आसुरियइ लच्छिा अमियतेयसिरिविजयह ढोइय किन खंत वैचित्तु णीसल्लर तं रिउजणणिहि बयणु समिच्छिउ
हिंसइ सग्गगमेणु पडिवजा । मिच्छतें जिणणाहु विवज्जा। पायहिं पडइ रलदहं देवहं । भवविभमि भामिज्जा छिज्जा । जीवह जीविउ मंडेइ कइ । पावइ माणष्ट विहरसहासई । बज्झइ एम जीउ रयर्बधे । आणिवि सा सुतार धवलच्छिइ । भायरपइहि सणेहें जोश्य । भन्नईखम मंडणउ पहिल। पुणु रणेउरवाणा पुछिछछ।
जाता है। लोभसे मनुष्य सोना इकट्ठा करता है। लोभके कारण स्वयंसे स्वयंको ठगता है । न खाता है और न पीता है, धनको जमीनमें गाड़कर रखता है, लोभी व्यक्ति दुर्गतयोनिमें जाता है।
पत्ता-नरकमें पत्तन दिखानेवालो इन चार षायोंसे जो अपनी रक्षा करता है, वह मोशसुखका आस्वाद लेता है ॥२३॥
मिथ्यात्वसे जनपद आच्छादित होता है, हिंसासे स्वगंगमनका प्रतिषेध होता है। मिथ्यात्वसे विटगुरु-चरणोंको पूजा की जाती है। मिथ्यात्वसे मनुष्य जिननाथका त्याग करता है, कामदेवसे मत्त महिला और मधुका सेवन करनेवाला रौद्र देवोंके चरणों में गिरता है। मिथ्यात्यसे जीव मोहित होता है। संसारके चक्करोंमें घूमता है और नाशको प्राप्त होता है। मिथ्यास्वसे असंयम बढ़ता है, जीवोंका जोब बड़ी कठिनाईसे निकलता है। खोटे आशयवाली इन्द्रियों की पोषण करता है और मनुष्य हजारों दुःख उठाता है। दूसरेके धन और स्त्रीके अनुबन्ध तथा रागके बन्धसे इस प्रकार जीव बंध जाता है। उसी अवसरपर धवल आँखोंवाली आसुरी लक्ष्मोने सुतारा लाकर अमिततेज और श्रीविजयको दे दो। भाई और पतिने उसे स्नेहपूर्वक देखा। उसने उनके चित्तको क्षम्य और शल्पहीन बना दिया। क्षमा भव्योंका पहला अलकार है। शत्रुकी माताके वचनोंका उन्होंने विचार किया, फिर रयनपुरके पति अमिततेजने तीर्थंकर विजयसे पूछा। २४. १. A गवणु । २. A मड्ड; P मंडुइ । ३, P खंतव्य वित्तु । ४. A सम्वहं ।
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