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महापुराण
[६०. १७.७णिमुणिषि णियामिहि णामस्वर अम्हई धाइय गुणि संधिवि सरु । मणिए वहरि भरवाएं भजहि अवरकलत्तु इरंतु ण लजहि । अप्पाहि तरुणि धुलियहारापलि दूसह सिरिविजयह वाणापलि । पत्ता-सा देवीह पसई एवाहि भिडहुँ ण जुत्तउं॥
काणणि कामसमाणड जाइवि जोइवि राणः ।।१७।।
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लहु महुं ताणिय पत्त तहु अक्बाहु । जीउ जंतु णरणाहु रक्खहु । तं परिहछिये पणवियमस्था उफंसकोदंडविहत्था । ए अम्हां भाइय पेणि विजण तुई मा मारामारंजियमण । एम मणिवि दीवयसिह पेसिस ते पोयणपुरि वयर भासिष्ठ । जिह हरिसुस गड मयणिसे जिह णिय परिणि चमरचंचेसें। जिह बेयालियविनइ विलसिव ता पहुजणणिहि वयणु विणीसित । जह ण वि सिटुर्स अण्ण केण वि जयगुत्तें अमोहजीण वि। तो वि सन्बु सम्भावह आणि सपरोक्खु वि पञ्चक्खु वि जाणिउँ ।
अम्हह परि जायई दुणिमित्तई पडियई णायलाच पक्खत्तई। १. पणइणिहरणु जाउँ पिपणीसह जायई विग्धु किं पि धरणीसह ।
पर कि कुसलु पडीव दीसह को वि कुसलपत्तिठ आवेसइ। अपने पिताके समान समानती हूँ। तब अपने स्वाधीक गामके अक्षर सुनकर हम प्रत्यकार पाण खड़ाकर दौड़े और शत्रुसे कहा-"भटवचनसे तुम भग्न होते हो, दूसरेकी स्त्रीका अपहरण करते हुए तुम्हें शर्म नहीं आती। जिसकी हारावति धूम रही है, ऐसो तरुनीको मुक्त कर दो। श्रीविजयको नाणावलि तुम्हें असह्य होगी।"
पत्ता-तब उस देवोने कहा कि इस समय लहना ठोक नहीं। काननमें जाकर कामके समान मेरे प्रिय राजाको देखकर-॥१७॥
शीघ्र मेरा समाचार उसे दो और नरनायके जाते हुए जीवको बचाओ। उससे पूछकर प्रणमित मस्तक और हाथमें प्रचण्ड तोर और धनुष लिये हुए हम दोनों यहाँ आये हैं । हे स्त्रियोंके मनका रमण करनेवाले तुम मत मरो। यह कहकर उस विद्याधरने अपने पुत्र दीपशिखको भेजा। उसने पोदनपुरमें यह वृत्तान्त कहा कि किस प्रकार नारायणपुत्र मुगके पीछे गया, किस प्रकार बमरचंबके राजाके द्वारा उसको गहिणीका हरण किया गया, किस प्रकार वह वेतालिक विद्यासे विलसित था। प्रभुको माता (स्वयंप्रभा) का वचन निकला-यद्यपि किसी औरने नहीं जयगुप्त और अमोघजिह्व नैमित्तिकोंने कहा था, तो भी सब बात सद्भावके साथ ठीक हो गयी। बौर परोक्ष पातको भी मैंने प्रत्यक्षरूपसे जान लिया। हमारे घर में दुनिमित्त हो रहे थे, आकाशसे नक्षत्र गिर रहे थे, प्रिय राजाको प्रणयिनीका हरण होगा, राजाको भी कोई विघ्न होगा। लेकिन उल्टे उसे कोई कुशल दिखाई देगा और कोई कुशल-वार्ता आयेगी।
५. AP णियसामियणामक्खः । १८. १. AP परिहच्छिवि । २. A आम ।