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-४९. ३.१०]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित जहि चोरारिमारिदालिब ई पासंडाई वि णस्थि रउद्दई। ताहि राणउ णलिणालयमाणणु गलिणप्पहु णामें णलिणाणणु । पत्ता भयभीयई महिणिवडियई जीर्य देव सविणउ अपंति ।।
जासु पयार्षे तावियई परणरणाहसयई कंपति ॥२॥
कलयलतचलफलकोइलगणि। तापणहि दिणि सहसंषयवणि । पेच्छिवि जिणु अणंतु वणवाले विण्णत्त सिरंगयमुयडालें । बहु तहिं तवसिहिङयवम्मीसरु गुणदेवहं भवदेवई ईसरु। परमप्पउ पसपण परमेसर आयट देई धम्मचकेसर। तं णिसुणेवि वेण वित्थंकर जाइवि वंदिउ दुरियनयंकह। बुझिवि धम्मु अहिंसालक्खणु चितिवि बंधमोक्खषिहिलक्खणु । देषि सुपुत्तु महिहिं परिरक्खणु सई रिसि तूयड राउ वियक्खणु । चरणमूलि जइवरहु अणंतहु चरइ मग्गि दुग्गमि अरहंतहु । पत्ता-णीलकिण्हलेसउ मयइ काउलेस दरें वरंतु
सुक्कलेस मुणिवत घरह भीमें तवता खिजंतु ॥३॥ संत्रस्त और पाशबद्ध हैं, मानो घरके कुत्ते हों । जहाँ चोर शत्रु मारी और दारिद्रय और भयंकर पाखण्डी नहीं है। उसमें लक्ष्मीका भोग करनेवाला और कमलके समान मुखवाला नलिनप्रभु नामका राजा था।
पत्ता-जिसके प्रतापसे सन्तप्त होकर, सैकड़ों शत्रुराजा काप उठते और भयभीत होकर धरतीपर गिरकर 'हे देव आपकी जय हो, विनयके साथ यह कहते हैं ।।२।।
इसनेमें एक दिन, जिसमें चंचल कोकिल-समूह कलकल कर रहा है, ऐसे सहस्राम्ब नामक वनमें अनन्त जिनको देखकर, वनपालने अपनी भुजारूपी डालें सिरसे लगाते हुए, उससे निवेदन किया, "हे देव ( उद्यानमें ) तपकी आगमें कामदेवको नष्ट करनेवाले गुणदेवों और विश्वदेवों के ईश्वर परमात्मा प्रसन्न परमेश्वर और धर्मचक्रेश्वर देव आये हुए हैं." यह सुनकर, उसने जाकर पापोंका नाश करनेवाले तीर्थकरकी वन्दना की। तथा अहिंसा लक्षणवाले धर्मको समझकर एवं बन्ध और मोक्षको विषि तथा लक्षणका विचार कर, अपने पुत्रको भूमिके रक्षण का भार सौंपकर, यह विचक्षण राजा स्वयं ऋषि हो गया। वह, मुनिवर अनन्तनाथके चरणमूलमें दुर्गम चर्यामार्गमें विचरण करने लगा।
पत्ता-वह कृष्ण और नोल लेश्या छोड़ देता है, कायक्लेशका दूरसे परित्याग करता है। वह मुनियर शुक्ल लेश्या धारण करता है और भीम तपतापमें वह अपनेको क्षीण करता है ॥३॥
६.A बीव । ३. १. A तावपणयदिणि । २. A सिरि गयं । ३. AP पमण । ४. AF देव । ५. AP मुघउ ।