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-५२. २७. १५ ]
महाकवि पुष्पान्त विरचित
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दुवई-ता सिहिजडि सपुतु परिपुच्छिवि हरि हलहर पयावई ।।
गढ रहणेउरम्मि दढे जिणगुणसुमरणसमियदुम्मई ॥ सो तहिं ए एत्यु वसति जांव बहुकालहिं जहणरु ढुक्कु ताप । सो पुछिरितारण कुसलु मे र जिणएयपोममसलु । असहायसहेजस सञ्चसंधु खयराहिउ गुणि महु परमबंधु । तं सुणिवि तेण खयरेण उत्त मेल्लिषि खगणिवपसर तु ।। थित धरिवि पंचपरमेट्ठिसेव महिवह ससुरस पावइड देव । एयइं अयण आयपिणयाई सजणचरिथई मणि मण्णियाई । ता एण सहहि संसं णियाई इंदियसुहाई अवगणियाई। सणएण फ्यावइपत्थिवेण आखच्छिय तणुगह छे वि तेण । अणुहुत्तई इच्छिउँ पुससोक्खु एंवहिं संसाइमि परममोक्खु । लइ जामि रष्णु पावज लेमि वयसंजर्मेभारह खंधु वेमि। हरिहलहरमउहणिरुद्धपाए । पस्थित थिउ फेंक वि गाहिं ताउ । जिम्मुकमाणमायामपहि
गरणाहहं सहुं सत्तहिं सएहिं । परिसेसिवि मंदिरमोहवासु पर लाई पासि पिहियासषासु ।
तब ज्वलनजटी अपने पुत्र नारायण, बलभद्र और प्रजापतिसे पूछकर, जिनके गुणोंके स्मरणसे जिसकी दुर्मति शान्त हो गयी है, ऐसा वह राजा अपने रथनूपुर नगर पला गया। जब वह वहाँ और ये यहां इस प्रकार रह रहे थे तो बहुत समयके बाद एक विद्याधर वहाँ बाया। नारायणके पिताने उससे कुशल समाचार पूछा कि जिनवरके चरणकमलोंका भ्रमर असहायोंको सहायता करनेवाला, सत्यप्रतिज्ञ, गुणी विद्याधर राजा मेरा श्रेष्ठ बन्धु सुक्षसे तो है। यह सुनकर उस विद्याधरने कहा कि विद्याधरराज और चक्रेश्वरत्व छोड़कर पंचपरमेष्ठीकी स्थिर सेवा स्वीकार फर वह ससुर राजा है देव, प्रवजित हो गये हैं। राजाने ये वचन सुने और सजनके परित्रोंको उसने माना। उसने सभामें इसकी प्रशंसा की तथा इन्द्रिय सुखोंकी निन्दा की। उस न्यायशील राजा प्रजापतिने अपने दोनों पुत्रोंसे पूछा कि मैंने इच्छित पुत्र सुखका अनुभव कर लिया है, इस समय मब परम सुखकी साधना करूंगा। लो में प्रवज्या लेकर वनमें जाता है। तथा व्रत और संयमके भारको मैं अपना कन्धा दूंगा। बलभद्र और नारायणके मुकुटोंसे जिसके पैर अवकट हैं, ऐसा वह राजा और पिता किसी भी प्रकार का नहीं। मान-माया और मदसे रहित सात सौ राजाओंके साथ घरके मोहवासका परित्याग कर उसने पिहितात्रय मुनिके पास व्रत ग्रहण कर लिया।
२७.१. APणय । २, A सुह मच्छह । ३. A रणि । ४. AP संजमु ।