________________
महापुराण
दुवई जो तुह विंझसत्ति सो दोहं मि भेउ ण लक्खिओ भए ।
इह कलोलणिवहु इहु जलणिहि केण वित्तओ जए । एक जीत विहिणा गंभीरई पर रइयई भिण्णाई सरीरई। जराहु केरस तं तुम्हारळ
तेरस तं वासु जि केर। पत्थु ण किन्जेइ चितु अधीर इणिबंधणु बंधुहि सार। णिगवयारु तं णासइ सुंदरि देहि समित्तहु तुहुँ गुणमंजरि । ता पहुणा यह णिकमच्छित एहर बंधु पप्प कहिं अच्छि । घेरि सीमंतिणीउ जो मग्गइ अबसे सोधणपाणड लग्गइ। परिसियरइरसकरणालिंगण जाहिण दूये देमि पणथंगण | तें बयणे पुरु गपि तुरंतर णियकुलसामिदि कहा महंतर । इंसान नदीमारवारिणि देव पदे मुसेणु विलासिणि | घसा-आयाणवि दयाई जंपियई ग्रेड चिराणन मंजिवि ।।
अभिट्टु सुसेणड्ड विंझपुरणरषद सीह व संजिवि ॥३॥
दुषई बेण्णि विवरणरेहिं संचालिय वेणि वि ते महायला ॥
__वरणारीकएण गणियारिरथा इव भिखिय मयगला ॥
"जो तुम हो, वही विन्ध्यवाक्ति है दोनोंमें मैंने कोई भेद नहीं देखा ? यह लहरोंका समूह है और यह जलनिधि है, जगमें कोन उसे विभक्त कर सकता है ? एक ही जीव है, परन्तु विधाताने गम्भीर विभिन्न शरीरोंकी रचना की है। जो उसका है, वह तुम्हारा है और जो तुम्हारा है, वह उसीका है। इसमें किसी प्रकार अपने चित्तको अधीर नहीं बनाना चाहिए । बन्धुओंका स्नेह निबन्धन ही सार है। अनुपकार उस स्नेहका नाश कर देता है। इसलिए सुन्दरो गुणमंजरी तुम अपने मित्रके लिए वे दो।" तब रामा सुषेणने दूसको भत्र्सना को-"हे सुभट, यह बन्धु कहाँ है, जो घरकी स्त्री मांगता है, वह अवश्य हो ( बाबमें ) धन और प्राणोंसे भी लग सकता है। जिसने रति-रस उत्पन्न करनेवाले आलिंगनोंको प्रदर्शित किया है, ऐसी प्रणयांगना नहीं दूंगा, ) दूत, तुम जाओ।" इन वचनोंसे दूत शीन नगर जाकर अपने स्वामीसे कहता है कि हे देव, हंस-वंश और वीणाके शब्दके समान बोलनेवाली विलासिनी गुणमंजरीको सुषेण नहीं देता है।
पत्ता-दूसोंके कथनोंको सुनकर और अपने पुराने स्नेहको भंग कर विन्ध्यपुरका राजा सिंहके समान गरजकर सुषेणसे मिड़ गया ॥३॥
दोनों ही दूत पुरुषोंसे संचालित थे । वे दोनों ही महाबल थे। श्रेष्ठ नारीके लिए हथिनीमें ३. १. A परस्य । २. AP कीरा । ३. Pयबहे । ४. A घरसी मंसिणि । ५. AR देमि पूय । ४. १. संचारिया ।