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-५४. २. १२]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित पत्ता-ण मयफळंकपडले मलिणु ण घरह खयर्वकत्तणु ।।
मुंह सुद्धहि च समु भणमि जइ वो कवेणु कइसणु ।।१।।
दुवई-मसकरिदमवलीलागह णरमणणलिणगोमिणी ।।
किं वण्णमि गरिंद सा कामिणि कामिणियेणसिरोमणी ।। दिस विबाहररंगें राषद करमहपंति पईवाहिं दीवइ । कुंचियकेसह कंदिइ काला माणिणि माणवमयरमासह। सुललियवाणि व सुकाहि केरी जहिं दोसइ तहिं सा भखारी। पढइ चार पोसियपत्यावर गायइ सुंदरि कण्णसुहावर । णवइ बहुरसभावणिसत्तई सा जइ लहहि कह व मई वुत्त । तो संसारख पेई फलु लद्धछ । सयलु वि तिहुषणु तुझु जि सिद्ध। ससिजोण्हाहीणे कि गयणे णासाविरहिपण किं वयणे । लवणजुत्ति वियलेण व भोल्ने वाइ विवज्जियण कि रज। घत्ता-तं णिसुणिवि राएं मंतिवरु देषि उवायणु पेसियध ॥
घरु जाइदि तेण सुसेणपहु पियवायइ संभासियत ||२||
पत्ता-वह मुगलांछनके पटलसे मालन नहीं होती, वह आय और वकताका धारण नहीं करती, फिर भी यदि मैं उस मुग्धाके मुखको चन्द्रमाके समान म्हता हूँ तो इसमें कौन-सा कवित्व है ? |शा
मतवाले करीन्द्रकी मन्दलीलाके समान गतिवाली वह कामिनी मनुष्यके मनरूपी कमलकी शोभा और कामिनी-जन की शिरोमणि है। उसका क्या वर्णन करू ? उसके बिम्बाषरोंके रंगसे दिशा अनुरंजित होती है, नख पंक्तिके प्रदीपोंसे आलोकित होती है, धुंधराले बालोंको कान्तिसे काली होती है। वह मानवरूपी मधुकरोंकी मालासे मानिनी है, वह सुकविको सुन्दर पाणीके समान है, वह जहाँ-जहां दिखाई देती है वहीं कल्याणमयो है। वह सुन्दर सुभाषित युक्तियोंको पढ़ती है, वह सुन्दरी कानोंको सुहावना लगनेवाला पाती है। अनेक रसों घोर भावोंसे परिपूर्ण नस्य करती है। यदि उसे तुम किसी प्रकार पा सकते हो, तो मैं कहता है कि तुमने संसारका फल पा लिया और समस्त त्रिभुवन सिद्ध हो गया। चन्द्रमाकी ज्योत्स्नासे रहित आकाशले क्या ? नाकसे रहित मुखसे क्या? लवणयुक्तिसे रहित भोजनसे क्या? इसी प्रकार उस सुन्दरीसे रहित राज्यसे क्या ?"
पत्ता-यह सुनकर, राजाने मन्त्रीवरको उपहार देकर भेजा। उसने घर जाकर प्रियवाणीमें राणा सुषेणसे सम्भाषण किया ||२||
४. AP महं। ५. AP कमणु । २. १, AP कामिणिजणं । २. AP फल पई । ३. AP पेसिट । ४. AP संभासिन ।