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संधि ५४
सिरिवासुपूज्जजिणतित्थि तर्हि चिरपरिहव आठहु ॥ करि लुद्ध णं हरि हरिवरहु सारउ भिडिव दुषि
लक्ष्
Ratiyar जहिं कामिणि चामरु संचाल जहि भूसणमणिकिरणाबलिय ताई अत्थाणि णिसण्णउ राण ता संपत्तष्ठ चरु सुमरंगिय भत्त वित्त गोमहिसीपचरs
सुहि गुणवि से सतोसियम तासु बेस पायें गुणमंजरि ag वाहि मई विदुषं जेहसं
॥ध्रुवक
दुबई - इह दीवम्मि भरहि वरविंझपुरम्मि महारिमारणो ॥ reas firefa विंझो श्ष पालियमत्तवारणो ॥
जहिं कपूररेणु णहु धवल । जहिं देवं वत् परिवोलइ । दसविसासु बहुवण घुलियाडं । इंद दिखर्गिस माण | सो पण पयजुयपणमिय सिरु | पत्थु जि भरइखेति कणयउरई । जाहि किं ण सुसेणु महीषइ । सरकुसुममय मंजरि । सिरंभहं दुकर तेहउं ।
सन्धि ५४
श्री वासुपूज्य तीर्थकाल में पूर्वजन्मके पराभवसे क्रुद्ध हरिवर द्विपृष्ठसे तारक भिड़ गया, मानो क्षुब्ध सिंह गजवरसे भिड़ गया हो ।
इस जम्बूद्वीपके भरत क्षेत्र में श्रेष्ठ विन्ध्यनगर में बड़े-बड़े शत्रुओं को मारनेवाला विन्ध्यशक्ति नामका राजा था जो विन्ध्याचलके समान बड़े-बड़े मतवाले हाथियोंका पालन करनेवाला था । जहाँ कस्तूरी शरीरको मलिन करती है ( वहाँके लोगोंका चरित्र मलिन नहीं होता ), जहाँ कपूरकी धूल आकाशको धवल बनाती है, जहाँ स्त्री चामर ढोरती है, जहाँ देवांग वस्त्र पहने जाते हैं, जहाँ भूषणमणियोंकी रंग-बिरंगी किरणावलियाँ दसों दिशाओं में व्याप्त हैं, वहां दरबारमें इन्द्रनागेन्द्र और विद्याधरेन्द्रके समान राजा बैठा हुआ था। वहाँ अत्यन्त मधुर वाणीत्राला द्रुत पहुँचा । दोनोंके चरणोंमें प्रणाम करते हुए उसने कहा- "अन्न-धन- गाय और भैंसोंसे प्रचुर इस भरत क्षेत्र कनकपुर है। अपने गुणविशेषसे सन्तुष्टमति सुधी राजा सुषेणको क्या तुम नहीं जानते ? उसकी गुणमंजरी नामकी वेश्या है, जो मानो कामदेवरूपी आम्रवृक्षको कुसुममय मंजरी है । उसका जैसा रूप मैंने देखा है, वैसा रूप उशो और रम्भा के लिए भी कठिन है ?
१. १. AP मलाई । २. AP खफदि । ३ P