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संधि ५८
जेणे कम्मविमुक जगु सेहत लक्खिं ।।। फयदहिं हरिहरबंभहिं जे जम्मि वि ण सिक्खि ॥ध्रुवक।
जो ण महइ जीवहं सासणासु सुल्झाइ सम्मत्त खाइपण जायंदणमंसिराहादशा जम्मतरि भावियभाषणासु समदिद्विदिकंधणतणासु णार्णवणिवेसियतिहुवणासु उभियसियायवतत्तयासु पवयणपारियपेसियसुरासु
जे होते मेल्लइ सासणासु। थुब्वइ देवोहे खाइएण। त जिचादवभासासणासु। संखोहियवितरभावणासु । तवजलणददुक्कियतणासु । दिहिवपरिरक्स्त्रियवयवणासु । एकाहियवरवत्तत्तयासु। कमकमलणेषियदेवासुरासु ।
सन्धि ५८ कर्मसे विमुक जिस एकने उस वैसे संसारको देख लिया कि जिसे ( देखना) दम्भ करनेवाले विष्णु, शिव और ब्रह्मा जन्म लेकर भी उसे देखना नहीं सीख सके ।
जो जीवोंके प्राणोंका नाश नहीं चाहता, परन्तु जिसके होने से जीव लक्ष्मी और चंचलता छोड़ देता है, उसे क्षायिक-सम्यक्त्व दिखाई देने लगता है। आकाशसे आकर देवता जिसको स्तुति करते हैं, जिनका शासन नागेन्द्र के द्वारा नमनीय है, जिनके शब्द सर्वभाषात्मक होते हैं, जिन्होंने जन्मान्तरमें सोलह भावनाओं का चिन्तन किया है, जिन्होंने व्यन्तर और भवनवासी देवोंको क्षुब्ध किया है, जो अपनी सम्यक् दृष्टिसे स्वर्ण और तुणको समान समझते हैं, जिन्होंने सपको आगमें दुष्कृतरूपी तृणोंको जला दिया है, जिनके ज्ञानमें तीनों लोक निवेशित हैं, जिन्होंने धैर्यरूपी बागड़से प्रतरूपी वनकी रक्षा की है, जिनके ऊपर श्वेत पासपत्र उठे हुए हैं, जो एकसे अधिक वरवासासे माशाओंको तृप्त करनेवाले हैं, जिन्होंने अपने प्रवचनोंसे मांस-मदिराके सेवनका निषेक किया है, जिनके चरण-कमलोंमें देव और असुर नमन करते हैं। A has, at the beginning of this samdhi, the following stanza:
संजुडियजाणुकोप्परगोधाकस्विघणाययो ।
अणहवा वेरियं तुजम जे पावर लेहो दुपखं ।। १ ।। P and K do not give it anywhere १. १. Pमक्सिय । २. APण वि सिक्वि । ३ P सिविनयउं । ४. A देवहि; P देवोहिं । ५. AP
णाद । ६. A जम्मंतरमिय । ७. PT णागति णिवे। ८. PT पेसीसुरासु । ९. APणमिम् ।