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महाकवि पुष्पदन्त विरचित घत्ता--सिविणय जोइवि विहणियणाहहु भासि ।।
तेण वि तप्फेलु णिचप्फलु तहि सवएसिः ।।५।।
णाणचक्खुणा जो णिरिक्लए जो जयं असेसं पि रक्खए । पोसए पिए दुवसामिए सुंदरी हले मझखामिए । सो तुमम्मि होही जिणेसरो भवजीवराईवणेसरो। संशपेसिया दावया सिरी कति किचि बुद्धी सई हिरी। आगया घरं देहसोहणं ताहि तम्मि विस्सा कयं घणं । तिपिण तिणि मासे धणी असो वुटओ सुर्वणंभपाउसो । मेहजाललीलापयासए पावणम्मि आसाढमासए 1 छहए दिणे किण्हपक्खए तित्थणाहसंखम्मि रिक्खए । चरणकमलजुयणवियपण्णओ गम्भकंजकोसे जिसण्णाओ।
पुणु पयस्थलममासमेरओ णिच सपा कणयं कुबेरओ। घत्ता-चउसंखाहिइ जलणिहिपण्णासइ ढलियइ ॥
पल्लहु तिजइ भायम्मि धम्मि परिगलियइ॥ ६ ॥
गइ सेयंसइ मासइ फरगुणि कंपियतिहुवणि
सिवसरहंसइ । पक्व तमघाणि | चउदहमि दिणि |
धत्ता-स्वप्नोंको देखकर देवीने अपने स्वामीसे कहा और उसने भी उसे उसका नित्यफलवाला-फल बताया ।।५।।
जो झानरूपी आँखसे देखते हैं, जो अशेष जगकी रक्षा करते हैं, हे दूबकी तरह श्यामांगी, कृशोदरी सुन्दरी, पोषण देनेवाली प्रिये, ऐसे वह भव्य जीवरूपी कमलोंके सूर्य जिनेश्वर तुममें उत्पन्न होंगे। इन्द्र के द्वारा प्रेषित देवियां श्री, कान्ति, कीर्ति, बुद्धि, सती और हो घर आयीं, और उन्होंने उसका उसी समय खूब देह शोधन किया। मेघजालको लीलाको प्रकाशित करनेवाले, पवित्र आषाढ़ माहके कृष्णपक्षके छठीके दिन, चौबीसवें शतभिषा नक्षत्र में जिनके चरणकमल युगलको नाग प्रणाम करता है, ऐसे वह गर्भरूपो कमलकोशमें स्थित हो गये। फिरसे कुबेरने नौ माहको अवधि तक नित्य धनकी वर्षा की।
पत्ता-यौवन सागर समय बीतनेपर, अन्तिम पल्पके तोसरे सागरमें धर्मका उच्छेद होने पर-॥६॥
शिवरूपी सरोवरके हंस श्रेयांसके चले जानेपर, फागुन माहके कृष्णपक्षमें, जिसमें त्रिभुवन
६. तं फलु णिच्यफल । ६. १. A सुवणंबुपाउसो । २. A कण्हपक्खए । ७. १. P सिवभर ।