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५२. ८. १० ]
महाकवि पुष्पबन्त विरचित पहृदोहबहलधूमोहमलिणि जलणजडि पडउ मा पलयजलणि । राया ढोयहि सा तुहुँ कुमारि मा इशारहि णियगोत्तमारि वत्ता-जाणियणयणिवहु कयवइरिचहु मंतबलु वि जो बुज्मइ ।
जेण तिखंडधर जिय ससुरणार तण समई को जुन्नइ ॥७॥
दुवई-म करि कुमार कि पि रोसुभडक्यणे बलिसमप्पणं ॥
करगयकणेयवलयपविलोयणि हो कि णियहि दप्पणं ।। तं सुणिवि भणि विट्ठरसवेण भो चार चारु भासिउं णिवेण । अण्णाणु हीणु मज्जायचत्तु मागंतु ण लज्जइ परकलत्तु । भरहहु लग्गिवि रिद्धीसमिद्ध रायर्सणु कुलि अहई पसिद्ध । सो घेई पुणे जायत विहिवसैण विडिव परणारीरइरसेण । संताणागय महुँ तणिय धरणि कि णक्खत्ते जाइ तवइ तरणि । दपिडु दुदु नृवणायभद्छु मरु मारिवि घिमि तुरंगकंछु । तं णिसुणिवि दूएं वुत्त एंव पाउसि कालबिणि रसइ जैव ।।
किं वरिसह मुवणु भरति तेव बोल्लंतु ण संकहि वप्प केव। को न करे, बलभद्रका कल्पवृक्ष नष्ट न हो, स्वामी द्रोहके प्रचुर अन्धकारके समूहसे मलिन प्रलयाग्निमें ज्वलनबटी न पड़े, इसलिए वह कुमारी तुम राजाके लिए दे दो, अपने गोत्र के लिए तुम मापत्तिका आह्वान मत करो।"
घसा-जिसने नयसमूहको जान लिया है, जिसने शत्र का वध किया है और जो मन्त्रबलको भी जानसा है, जिसने तीन खण्ड धरती जीत ली है, देवों और मनुष्यों सहित, उससे युद्ध कौन कर सकता है ||७||
"हे कुमार, क्रोधसे उद्भट मुखबाले उसके लिए बलि समर्पण मत करो, हाथमें स्थित कनकवलयको देख लेनेपर तुम दर्पण क्या ले जाते हो?" यह सुनकर बलभद्र ने कहा-"अरे, राजाने बहुत सुन्दर कहा । अज्ञानी नीच और मर्यादाहीन उसे, परस्त्रीको मांगते हुए, लज्जा नहीं आती । भरतसे लेकर ऋद्धिसे समृद्ध राज्यत्व हमारे कुलमें ही प्रसिद्ध रहा है। विधिके विधानसे, परनारीके रतिरसके कारण प्रवंचित वह ( अश्वग्रीव ) फिर उत्पन्न हुआ है। कुल परम्परासे धरती हमारी है । जबतक सूर्य तपता है, नक्षत्रोंसे क्या? दपिष्ठ दुष्ट और नृप न्यायसे भ्रष्ट अश्वग्रीवको में मारकर फेंक दूंगा।" यह सुनकर इतने इस प्रकार कहा, “पावस ऋतु में जिस प्रकार कादम्बिनी ( मेघमाला) गरजती है, क्या वह उसी प्रकार बरसकर विश्वको भर देती है। है सुभट, तुम्हें बोलते हुए संकोच क्यों नहीं हो रहा है ?
७. AP Tई सा । ८. A परा । ८.१.A रोसुरकरावयणायलिसमप्पणं; P रोसु मरवयणि । २. Pणगवलयं । ३. A विठ्ठर सवेण ।
४. A रयणतयकुलि । ५. AP पई, but Kई and glous पादपूरणायें। ६. AP जायउ पुण। ७. AP णिवणाय ।