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महाकवि पुरुषवम्त विरचित रिउणा ण णिविड
कण्हेण पट्टषित। जहिं सप्पु तहिं गरुलु जहि अग्गि नहिं सलिलु । जहि सिद्दरि तहिं कुलिखें अहि तुरट तहिं महिसु । जहि विडदि तहिं जलणु जहिं मेहु तर्हि पवणु। जहिं रत्ति नहिं दिया जहिं सीहु तहि सरहु । जाहिं कालु सोंडालु तहिं कुडिलु दाढालु। केसरि पवित्थरइ
णहरेहि उत्थरइ। जहिं भीम वेयालु
तहि मंतु असरालु । जुजेवि कोवेण
गोविंददेवेषण । रिउणो णिहित्ता
विज्जाव जित्ताउ। जुज्मेषि भूवेहिं
पखिवखरूवेहि। घत्ता-बहुरूविणिए सुरका मिणिप खगवद भणि ण सक्कमि ।।
हलहरसिरिहर पहरणकरहं माणु मलंतु चवकमि ॥२३॥
दुवई-जंपिउं हयगलेम कि के वि तिहुयणि धोरु हीरए ।।
महुँ शियबाहुदंडपिपर पई किलर का की। सेणेष भणेप्पिाणु मुक्छ सत्ति मेहे चलविज्जु व धगधगंति । गयणयलि एंति उरयलि घुलंति चल पलयकालजाल व जलंति ।
विष्फुरिय धरिय दामोयरेण संकेयागय पारि व गरे । दोनों हो जलती हुई प्रलयाग्नि थे । वे दोनों हो मानो शनिश्चर थे। नारायण त्रिपृष्ठने जो तीर प्रेषित किया, शत्रु उसे नष्ट नहीं कर सका । जहाँ साँप है, वहां विष है, जहां आग है, वहां जल है, जहाँ पर्वत है, वहां वन है, जहाँ अश्व है, वहाँ महिष है, जहाँ वृक्ष है, वहां आग है, जहां मेघ है, वहां पवन है, जहां रात है, वहाँ दिन है, जहां सिंह है, वहाँ श्वापद है, जहां मतवाला कृष्णगज है, वहाँ क्रूर दाढ़ोत्राला सिंह फेरता है और नखोसे उछलता है। जहां भोम वेताल है वहाँ विशाल मन्त्र है। क्रोध युक गोविन्द देव ( त्रिपृष्ठ ) ने शत्रुके द्वारा फेंकी गयी विद्याको, प्रतिपक्षल्प ( अश्वप्रोवरूप ) राजाओंसे युद्ध कर जोत लिग ।
घना-देवविधा बहुरूपिणीने विद्याधर राजासे कहा कि हाथमें अस्खा लेनेवाले बलभद्र और नारायण ( विजय और त्रिपुष्ठ) का मैं कुछ नहीं कर सकती, जनवा मान मर्दन करते हुए चौंकती हूँ ॥२३॥
अश्वनीव ने कहा, "क्या त्रिभुवन में किसीके द्वारा धैर्यका अपहरण किया जा सकता है, मेरे बाहुरूपी दण्डको स्थिर सहचरो तुम्हारे द्वारा यह क्या किया जा रहा है ?" उसने यह कहकर शक्ति छोड़ी जो मेधके द्वारा चंचल बिजलीकी तरह धकधक करती हुई, आकाशतलमें आती हुई उरतलपर व्याप्त होतो हुई, चंचल प्रलयकालकी ज्वालाकी तरह जलती हुई, विस्फुरित बह,
२. A कुहिनु । ३. A कोलु। ४. AP कुखिल । ५. A मंति। ६. 4 जुझेवि; P जं जं वि। ७. P ____ has पृणु before बहु । ८. AP मलंति चम।। २४. १. P°सहयरए अरि काई । २. AP पति । ३. AP°जालेव पउंति ।