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महापुराण
समेबिजलवाहियालीणिवेसु अवितुहटिटॉपएसु। वियसियषणपरिमलगइमनु पलनीयकुलगुमुगुमंतु । जिणवरघरधंदाटणटणंतु कामिणिकरफेकणखणखणंतु । माणिकरावलिजलजलंतु सिहरग्गधयावलिललललंदु । ससिमणिणिझरजलझलझलंतु मग्गावलम्गहरिहि लिहिलंतु । करिचरणैसंखलाखलखलंतु रषियंत हुयासणधगधगंतु। बहुमंदिरमडियेजिगिजिगंतु सहलदलतोरणाचलचलंतु । गंभीरतूररवरसमसंतु
तसगयवसंतु णिच्चु जि वसंतु। कालायरुधूषियणायरंगु णाणारंगाव लिलिहियरंगु। घसा-सा सुंदरि पियमणहारिणिय सुरहियगंधई मालइ ।।
'सुहं सुत्त विरामि विहावरिहि सिविणयमाल णिहालइ ॥२॥
गलियदाणवलजललवलोलिरभिंगयं
पेच्छा विसालच्छि पमत्तमयंगयं । इट्ठगिद्वितणुकंसणकंटइयगयं
वसहममलथलकमलपसाहियसिंगयं ।
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जिसमें अश्वोंके सम और विस्तीर्ण कीड़ाप्रदेश हैं, तथा सम्पुष्ट बाजार और द्यूतप्रदेश हैं। जो विकसित वनके परिमलोंसे महक रहा है और चंचल भ्रमरोंके कुलसे गुनगुना रहा है। जिसमें जिनवरके मन्दिरोंके घण्टोंकी टन-टन ध्वनि तथा कामिनियोंके कंगनोंकी खन खन धनि हो रही है, जो माणिक्योंको किरणावलीसे प्रज्वलित है और शिखरोंके अग्रभागकी ध्वजाओंसे चंचल है। जो चन्द्रकान्त मणियोंके निझरोंके जलसे चमक रहा है। मार्गपर चलते हुए अश्वोंसे आन्दोलित है तथा हापियोंके पैरोंकी श्रृंखलाओंसे झल-सा रहा है, सूर्यकान्त मणियोंकी ज्वालासे धकधक करता हुआ, अनेक प्रासादोंकी शोभासे चमकता हुआ जो गीले पत्तोंके तोरणोंसे चपल है, गम्भीर तूर्योसे शद करता हुआ जो तरणजनोंसे अधिष्ठित है और जिसमें वृक्षों में नित्य वसन्त स्थित रहता है। जिसके प्रांगण कालागुरुके धुएंसे युक्त तथा नाना प्रकारको रांगोलियोंसे लिखित हैं।
पत्ता-सुरभित गन्धसे मालतीके समान अपने प्रियके मनका हरण करनेवाली, सुखसे सोतो हुई बह रात्रिका अन्त होने पर स्वप्नावली देखती है ॥२॥
वह विशालाक्षी स्वयं देखती है-जिसके झरते हुए चंचल मदजलके कक्षोंपर चंचल भ्रमर मँडरा रहे हैं ऐसे प्रमत्त महागजको; जिसका शरीर पहली बार ब्याई हुई गौके शरीरके संस्पर्शसे रोमांचित है, २. १. १ समु जेत्यु बाहि । २.°टापवेसु । ३. P°वरणह संस्खला । ४. AP रविरंत । ५. A°माण ।
६. A समसमंतु। ७.A सुरहिगंध णं मालइ; P सुरहियगंध स मालह। ८. A सुहसुत्ति; P सुहें सुत्त।