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-४८.१०.१४ ]
महाकवि पुष्पवास बिरचित
जं दिन मओ महुयरु सणालि ता चिं जिणु सिरिसबसाई हो विधिगत्थु धणु बरु कलत्तु स्वणि च खणि गायइ सरेहिं खपि द्विगु खणि विदति
सुकर सुहड हवं चाइ भोह हुर्ड्स चंग राव तु मर जहिं जहिं धप्पज्जइ तहिं जि बंधु सहुँ जाइ ण परियणसयण सत्थु भासंतई संजयसंम्मयाई अणुकूलितेहि तिलोयणाहु करिविप महित्र जेंत्र
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मयरंदालुद्ध आरणालि । अलिविहि होस अम्हारिसाई | जणु सयल मोहमहराइ मत्तु | खणि रोइ उ ताइ करेहिं । उद्यापणशु दमाई | हउं सूह एवं णिफणै जोइ । जोणीमुद्देसु संसरइ सरइ । अण्णाणण्णु उ यिइ अंधु । संसारिकासु वि को वि एत्थु । वा पाई सुरवर गुरुसयाई । तांत्राइव सामरु अमरणाहू जडु कइ किंकिरकइमि तेंव |
पत्ता- पियगोत्तद्दियत्तु पुणु पुणु हियव भावियष्ठ || संताणि सडिंभु रणाद्देण णिरूदियउ || १०||
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जब उन्होंने नाल सहित कमलमें मकरन्द ( पराग ) के लोभी भ्रमरको मरा हुआ देखा तो जिन सोचने लगे, लक्ष्मीरूपी रसके लोभी हम लोगोंकी भी भ्रमर जैसो हालत होगी। हो-हो, धन, स्त्री और घरको धिक्कार, समस्तजन मोहरूपी मदिरासे मतदाला हो रहा है। वह ( जनसमूह ) क्षण में नाचने लगता है, क्षणमें स्वरोंसे गाने लगता है, क्षणमें रोता है और हाथोंसे अपने उरको पीटने लगता है | क्षणमें दरिद्र हो जाता है, और क्षण में वैभव में स्थित होकर अपने सिर ऊंचा कर गर्वसे चलता है । में सुकवि हूँ, में सुभट हूँ, में त्यागी हूँ, मैं भोगी है । मैं सुभग हूँ, मैं योगी हूँ। मैं अच्छा हूँ, यह कहता हुआ मृत्युको प्राप्त होता है, और यौनिके मुखों में रति पूर्वक भ्रमण करता है । जहाँ-जहाँ उत्पन्न होता है, वहां-वहां बन्धको प्राप्त होता है, अज्ञानसे आच्छादित यह अन्धा कुछ नहीं देखता। परिजन और स्वजनका समूह साथ नहीं जाता। संसार में यहाँ कोई Frater नहीं है । तब संयम और सम्यक्त्वकी घोषणा करते हुए लौकान्तिक देव वहाँ आये । उन्होंने त्रिलोकनाथको तपके लिए अनुकूलित किया । इतने में देवोंके साथ देवेन्द्र आ गया। उसने अभिषेक कर प्रभुकी जिस प्रकार पूजा की में जड़कवि उसका किस प्रकार वर्णन करूँ ।
पत्ता -- अपने गोत्र के हितका उन्होंने मनमें बार-बार विचार किया, और नरनाथने कुलपरम्परा में अपने पुत्रको स्थापित कर दिया || १० |
१०. १. A दिउ मनुयरु मज सणालि; P भुउ सुणालि । २. A उत्ताणणु जणु गग जाइ; P खणि उत्ताणनागण । ३. APविण्णु। ४. Aभति । ५. AP ण कोइ वि कासु । ६. संजयसंयमाई; P संजयसंगमाई । ७. A फिर कह कहनि 1