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महापुराण
[४८. १३.५जे पई जि रउद्दई दूसियाइं तो आसणि कि सीहई थियाई। जा रयणई तुरु तिणि वि पियाई तो तुहुं किर णिरलंकार काई। धत्ता-थेणत्तु णिसिधु जई तुहे तो कैकेजितरु ।।
अच्छरकरसोह हरइ काई कयदलपसरु ।।१३।।
तहुं माणुसु मुवणि पसिधु जइ वि माणवियपयइ तुह पत्थि तइ वि । जइ कासु वि पई णड दंड कहिल तो कि छत्तत्तइ फुरइ अहिज | जइ रूसहि तुहुं सरमग्गणा तो किं ण देव कुसुमवणाहं । जइ वारिउ पई परि घाउ एंतु तो कि हम्मद दुंदुहि रसतु । जइ पई छडिय मंडलहु तत्ति तो कि पुणु भामंडलपवित्ति। कहिं ऍक्कदेसरहु तुह महेस केहिं बहुजणमासइ मिलिय भास । ण बियाणवि तेरउ दिवचार सोहम्माहिवइ सक्कुमार | इय दिदि योग र सनिपटा देषण सिढि णीसेस दिट्ठ । पत्ता-एयासी तासु जाया जाणियधम्मविहि ।।
गणहर गणणा गुरुयण गुरुमाणिकणिहि ॥१४॥ पहते हैं ? यदि रौद्र लोग तुम्हारे द्वारा दुषित कर दिये गये हैं, तो फिर तुम्हारे बासनमें सिंह क्यों हैं। यदि तुम्हें तोन (सम्यग्दर्शन, ज्ञान और चारित्र) प्रिय हैं, तो तुम अत्यन्त निरलंकार क्यों हो?
पत्ता-पदि तुमने चोरीका निषेध किया है तो तुम्हारा अशोक वृक्ष अपने पसे फैलाकर अप्सराओंको शोभाका अपहरण क्यों करता है ||१३||
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यद्यपि तुम विश्व में प्रसिद्ध मनुष्य हो, फिर तुम्हारी प्रकृति मानवीय प्रकृति नहीं है। यदि तुमने विश्वमें किसीके लिए दण्ड नहीं कहा, तुम्हारे छत्रत्रयमें वह अधिक क्यों चमकता है। यदि तुम कामदेवके बाणोंसे अप्रसन्न होते हो, तो है देव, पुष्पों की पूजासे तुम अप्रसन्न क्यों नहीं होते हो ? यदि तुमने दूसरेपर आघात करना मना कर दिया है तो बजते हुए नगाड़ोंपर आषात क्यों किया जाता है ? यदि तुमने मण्डलों (.देशों) में तृप्तिका परित्याग कर दिया है तो फिर तुममें भामण्डलोंको प्रवृत्ति क्यों है ? एक देश में उत्पन्न होनेवाले महेश, तुम कहाँ, और बहुजनोंको भाषासे मिली हुई तुम्हारी भाषा कहाँ ? हम तुम्हारे दिव्य आचरणको नहीं जानते।" सौषम और सानत्कुमार स्वाँके इन्द्र, इस प्रकार वन्दना कर दोनों बैठ गये। देव (शीतलनाथ) ने समस्त सृष्टिका कथन किया।
पत्ता-उनके धर्मविधिको जाननेवाले और गुरुरूपी माणिक्य निधिवाले महान इक्यासी गणोंके स्वामी गणधर हुए ॥१४||
८. A जड़; P जं। ९.AP तो तुह । १४. १. A माणसु । २. A P दॆतु । ३. A हम्मइ कि । ४. A एकादेस तुहह महेस; P एकस मर
सुई महेस । ५. A कि बहुजणभास; P कि बहुमणभासहि । ६. A P सणकुमारु ।