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महाकवि पुष्पवन्त विरचित
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णारीचिंतणु णे करइ ईसणु ण संभासणु ण करफंसणु । गंधु मल्ल सरु रामप्पायणु पर अइमत्तपाणेरसभोयणु । तं परिहरा वच्छ अहि रोसह होइ सूइ माणाझ्यदोसहु । भाविवि भाषणास णयजुसिउ दसणसुद्धिविणयसंपत्ति। कम्मु महम्मु णियाणु णिसिद्ध तित्थयरत्तगोतु से बद्धष्टं । मुच संणासणेण जोईसर जायउ प्राणेयफपि सुरेसर। अढाईजहस्थतणु सुंदर बीससमुरमाणजीषियधरु। मुयइ सासु सुई णिहि दहेमासहि मुंजइ वीसहि परिससहासहि । ओहिणामणाणेण परिक्खा धूमप्पह महि जांब णिरिक्खइ। काले कालाणणु संप्राविई" थिइ छम्माससेसि तहु जीविइ। पत्ता-दिण्णविवक्खासंकयं मुहसोहाजियपंकयं ।।।
सुइलिय सुइमाणियसिवं भणा कुलिसि दविणाहिवं ॥४॥
जधुवीषि रविदीवयरिसह मेहधरियपरमहिवाइर्षविहि कासबगोत्तहु गुप्तससका
भरहे मुत्तइ भारहवरिसह । रमरियहि णयरिहि काकंदिहि । वहरिरणंगणि वनियसंकार ।
वह न तो नारोका चिन्तन करते और न दर्शन । न भाषण और न हाथ से संस्पर्श, न राग को उत्पन्न करनेवाले गन्ध-माल्य और स्वर, और न प्राणोंको अत्यन्त मत्त बनानेवाले रसभोजन । उस वस्तुका परित्याग कर देते, जिससे मानादि दोषों और क्रोधकी उत्पत्ति होती। दर्शनविशुद्धि, विनम-सम्पन्नता आदि नययुक्त भावनाओंका चिन्तन कर, कर्म-अधर्म और निदानका निषेध कर उन्होंने तीर्थकर गोत्रका बन्ध कर लिया। संन्यासमरणसे मरकर यह योगीश्वर प्राणतस्वर्गमें सुरेश्वर हुए । साढ़े तीन हायका सुन्दर शरीर। बीस सागर प्रमाण डीवको धारण करनेवाला,
नधि वह दस माहमें सांस छोड़ता और बीस हजार वर्ष में भोजन करता। वह अवधिज्ञानके द्वारा धूमप्रभ नरक पर्यन्त भूमिको जानता। समय के साथ कालकी अवधि समाप्त होनेपर तथा उसका जीवन छह माह शेष रह जानेपर।
घत्ता-शत्रुपक्षको शंका उत्पन्न करनेवाले, तथा अपने मुखकमलोंको जीतनेवाले सुफलित सुख और शिवको माननेवाले कुबेरसे इन्द्र ने कहा-॥४॥
जिसमें सूर्यरूपी दीपक दिखाई देता है ऐसे जम्बूद्वीपमें भरतके द्वारा भुक्त भारतवर्ष में, जहाँ बलपूर्वक राजारूपी वन्दियोंको पकड़ रखा है, ऐसी आदमियोंसे संकुल काकन्दी नगरीका, ४.१. P करह ण । २. A पाणु रस । ३. P वासु । ४. A गियाणि । ५. AP पाणयकपि । ६. A अशाहियतिहत्य; Pा कि हत्म । ७. P°माण । ८. १ मुहीणिहि । ९. A समाहि । १०. P
ओहिणागमाणेण । ११. AP संपाविह । ५. १. P मर।