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-४२. १०.६]
महाकवि पुष्पदन्त विरचित आइमे मासए चंदजोण्हं किए पक्खए बारसीए इणे पच्छिमत्थे मघारिक्खए। ५ इच्छियं णो सइत्तम्मि रायाणसंमाणसं तेण मोत्तूण भत्तं तिरत्तं च काऊण सं।। मेरुधीरेण हतूण कम्मारिकूरं बलं सव्वदवावलोयं समुप्पाइयं केवलं । आसणाणं पयंपेण पायालए पण्णया कंपिया देवलोयम्मि देवा वि णिटुण्णया। माणवा माणवाणं णिवासाउ संचल्लिया वाहणोहेहिं खं ढंकियं मेइणी डोल्लिया। आगओ वित्तसन्न ससूरो सतारो ससी जोइओ दीहणीलालिमालाजडालो रिसि। १० तिण्णि बाणासणाणं सयाई सरीरुण्णओ अंगवण्णेण सोवण्णवण्णं समावण्णओ। धत्ता-सुरवइअहिव हिहिं महिर्वइहिं मि णियणियसत्तिइ ।।
पारद्धउ थुणहुँ सुमईसरु परमइ भत्तिइ ।।९।।
जय देव णिप्पाब जर तुंग णिभंग जय वाम णिवाम जय धीरे संसारजय संत विकत जय कंत कुकयंत
णिक्कोव णित्ताव। दिव्वंग णिवंग। णिकाम णिद्धाम । कंतारणित्थार। परमंत अरहंत । कुणयंत भयवंत ।
प्रियंगुलताके नीचे अपने निश्चल ध्येयका ध्यान करते हुए चैत्र माहके शुक्लपक्षकी एकादशीके दिन सूर्यके पश्चिम दिशामें स्थित होनेपर मघा नक्षत्रमें उन्होंने अपने चित्तमें राजाओंका सम्मान नहीं चाहा । भोगत्व और रतिको छोड़कर और सम्यक्त्व ग्रहण कर मेरुके समान धीर उन्होंने कमरूपी अरिके कर बलको नष्ट कर सर्व द्रव्यका अवलोकन करनेवाले केवलज्ञानको प्राप्त कर लिया। आसनोंके प्रकम्मनसे पाताललोकमें नाग कांप उठे, देवलोकमें देव भी नींदसे उठ बैठे। मनुष्य मनुष्योंके निवाससे चल पड़े। वाहनोंसे आकाश ढक गया और धरती हिल उठी। इन्द्र आ गया, सूर्य और तारों सहित चन्द्रमा आ गया। उन्होंने लम्बी नीली अलिमालाके समान जटावाले ऋषिको देखा। उनका शरीर तीन सौ धनुष ऊंचा था। अपने शरीरके रंगमें वह तपाये गये सोनेके रंगके समान थे।
घत्ता-सुरपतियों, नागपतियों और महीपतियोंने अपनी-अपनी शक्तिके अनुसार भक्तिपूर्वक श्रेष्ठमति सुमतीश्वरको स्तुति शुरू की ।।९।।
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__ हे निष्पाप, निष्क्रोध और निस्ताप ! आपकी जय हो। हे महान् निर्दोष दिशांग, आपकी जय हो । हे सुन्दर स्त्रीरहित निष्काम और निर्धाम, आपकी जय हो। हे धीर और संसाररूपी कान्तारसे निस्तार करनेवाले, आपकी जय हो। हे शान्त विक्रान्त परमन्त्र अरहन्त, आपकी जय हो। हे स्वामो कृतान्तके लिए अप्रिय, कुनथका अन्त करनेवाले ज्ञानवान्, आपकी जय हो। हे
४. A बारसीए दिणे; P गारसीए इणे । ५. P सइत्तं । ६. A पकंपेण । ७. P हल्लिया । ८. A P
महिवइहिं णविउणियसत्तिह। १०.१. A णित्ताव णिक्कोव । २. P वीर ।