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संधि ४५
णित्तेहयोरिवंदडु पण विवि कुबलयचंदहु
षयणचंदजियचंदह ।। चंदप्पहहु अिजिंदा ॥ध्रुवक।
णियंगरस्सीहि सम विणीयं कयं कयत्थं किर जेण गि अतुच्छलछीहलकप्पभूयं दयावरं पालियसम्वभूयं ण जंपियालीविरहे विसणं विसुद्धभाई दिगिमार्य
णिहीसरं जं महियंवराय १० पबुद्धदुकम्भविवायवीलं ।
सुयंगउत्तीहि जयं षिणीयं णमति जं देवबई विणिर्थ । उदारचित्तं गुणपत्तभूयं । गिराहि संबोहियरैक्खमयं । मुंणि महतं विमलं विसणं । परं परस परिक्षीणमायं । परजियाणंतदुरंतरायं। विइण्णदुन्दाइविवायवीलं।
सन्धि ४५
शत्रुसमूहको निस्तेज करनेवाले तथा मुखचन्द्रसे चन्द्रमाको पराजित करनेवाले पृथ्वीमण्डलके चन्द्रप्रभु जिनेन्द्रको मैं प्रणाम करता हूँ।
जिन्होंने अपने शरीरकी किरणोंसे अन्धकारका विनाश किया है, और शोमन द्वादशांग श्रुत की उक्तियोंसे जगको विनीत और कृसार्थ किया है, जिन्हें देवेन्द्र प्रतिदिन नमस्कार करते हैं, जो महान् लक्ष्मीरूपी फलके लिए कल्पवृक्षके समान है, जो उदारचित्त और गुणोंके पात्रीभूत हैं, दयावर सब प्राणियोंके पालनकर्ता, अपनी वाणीसे भूतपिशाचोंको सम्बोधित करनेवाले भो प्रिय सखीके विरहमें विषण्ण नहीं होते, जो पवित्र संज्ञाशून्य महान मुनि हैं, जो विशुद्धभाव और प्रमाद रहित हैं, जो श्रेष्ठ विश्वस्वामी और माया रहित हैं, निधियोंके ईश्वर, अन्तरायोंका नाश करनेवाले, अनन्त दुरन्त रागोंको जोतनेवाले, दुष्पाक कर्मको संवेदनासे सजग, जो दुष्ट वादियों को
A has, at the beginning of this Sarpdhi, the following staaza:
वापीकूपतागबैनवसतीस्त्यक्त्वेह यत्कारितं भव्यश्रीभरतेन सुन्दर पिया जनं सुराणां ( पुराणं ) महत् । तस्कृस्वा प्लवमुत्तमं रविकृतिः ( ? ) संसारवाः सुखं
कोम्यत् {7) खसहसो (7) स्वि कस्य हवयं तं वन्दितुं मेहते ॥१॥ This stanza is not found in any other known MS, of the work, १.१. A भरविदा; P मरिविबह । २. A दयायरं । ३. A संबोहियसम्वभूयं; T recordsap सब
मुमति पाठे सर्व भूक सर्वभूमिकम् । ४. P मुगोमहंत । ५. A P परिसीण । ६. A दुम्यायविशाम ।